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भागम-युग का जैन-दर्शन
बनाना भी अभिप्रेत था। इतना ही नहीं, किन्तु आगम के मुख्य विषयों का यथाशक्य तत्कालीन दार्शनिक प्रकाश में निरूपण भी करना था, जिससे जिज्ञासु की श्रद्धा और बुद्धि दोनों को पर्याप्त मात्रा में संतोष मिल सके। - आचार्य कुन्दकुन्द के समय में अद्वैतवादों की बाढ़-सी आगई थी।
औपनिषद ब्रह्माद्वैत के अतिरिक्त शून्याद्वैत और विज्ञानाद्वैत जैसे वाद भी दार्शनिकों में प्रतिष्ठित हो चुके थे। तार्किक और श्रद्धालु दोनों के ऊपर उन अद्वैतवादों का प्रभाव सहज ही में जम जाता था। अतएव ऐसे विरोधी वादों के बीच जैनों के द्वैतवाद की रक्षा करना कठिन था। इसी आवश्यकता में से आचार्य कुन्दकुन्द के निश्चय-प्रधान अध्यात्मवाद का जन्म हआ है। जैन आगमों में निश्चय नय प्रसिद्ध था ही, और निक्षेपों में भावनिक्षेप भी विद्यमान था। भावनिक्षेप की प्रधानता से निश्चयनय का आश्रय लेकर, जैन तत्त्वों के निरूपण द्वारा आचार्य कुन्दकुन्द ने जैन दर्शन को दार्शनिकों के सामने एक नये रूप में उपस्थित किया । ऐसा करने से वेदान्त का अद्वैतानन्द साधकों को और तत्त्वजिज्ञासुओं को जैन दर्शन में ही मिल गया। निश्चयनय और भावनिक्षेप का आश्रय लेने पर द्रव्य और पर्याय , द्रव्य और गुण, धर्म और धर्मी, अवयव और अवयवी इत्यादि का भेद मिटकर अभेद हो जाता है । आचार्य कुन्दकुन्द को इसी अभेद का निरूपण परिस्थितिवश करना था ? अतएव उनके ग्रन्थों में निश्चय प्रधान वर्णन हुआ है और नैश्चयिक आत्मा के वर्णन में ब्रह्मवाद के समीप जैन आत्मवाद पहुँच गया है। आचार्य कुन्दकुन्द-कृत ग्रन्थों के अध्ययन के समय उनकी इस निश्चय और भावनिक्षेप प्रधान दृष्टि को सामने रखने से अनेक गुत्थियाँ सुलझ सकती हैं और आचार्य कुन्दकुन्द का तात्पर्य सहज ही में प्राप्त हो सकता है ।
अब हम आचार्य कुन्दकुन्द के द्वारा चर्चित कुछ विषयों का निर्देश करते हैं। क्रम प्रायः वही रखा है, जो उमास्वाति की चर्चा में अपनाया है । इससे दोनों की तुलना भी हो जाएगी और दार्शनिक-विकास का क्रम भी ध्यान में आ सकेगा।
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