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आगम-युग का जन-दर्शन
एक च पुरां च संखा संठाणमेव च । संजोगा य विभागा य पंज्जावाणं तु लक्खणं ॥ "
उससे यह प्रतीत होता है, कि मूलकार को उभयपद से दो या अधिक द्रव्य अभिप्रेत हैं । इसका मूल गुणों को एकद्रव्याश्रित और अनेक द्रव्याश्रित ऐसे दो प्रकारों में विभक्त करने वाली किसी प्राचीन परम्परा में हो, तो आश्चर्य नहीं । वैशेषिक परम्परा में भी गुणों का ऐसा विभाजन देखा जाता है - संयोगविभागद्वित्वद्विपृथक्त्वा वयोऽनेकाश्रिताः ।” प्रशस्त० गुणनिरूपण ।
पर्याय का उक्त आगमिक लक्षण सभी प्रकार के पर्यायों को व्याप्त नहीं करता । किन्तु इतना ही सूचित करता है, कि उभय द्रव्याश्रित को गुण कहा नहीं जाता, उसे तो पर्याय कहना चाहिए । अतएव वाचक ने पर्याय का निर्दोष लक्षण करने का यत्न किया है। वाचक के " भावान्तरं संज्ञान्तरं च पर्यायः ।” ( ५.३७ ) इस वाक्य में पर्याय के अर्थ और व्यंजन - शब्द दोनों दृष्टियों से हुआ है । किन्तु पर्याय का लक्षण तो उन्होंने किया है कि " "तभावः परिणामः " । ( ५.४१ ) यहाँ पर्याय के लिए परिणाम शब्द का प्रयोग साभिप्राय है !
स्वरूप का निर्देश
मैं पहले यह तो बता आया हूँ, कि आगमों में पर्याय के लिए परिणाम शब्द का प्रयोग हुआ है । सांख्य और योगदर्शन में भी परिणाम शब्द पर्याय अर्थ में ही प्रसिद्ध है । अतएव वाचक ने उसी शब्द को लेकर पर्याय का लक्षण ग्रथित किया है, और उसकी व्याख्या में कहा है कि, "धर्मादीनां द्रव्याणां यथोक्तानां च गुणानां स्वभावः स्वतस्वं परिणामः” अर्थात् धर्म आदि द्रव्य और गुण जिस-जिसस्वभाव में हो जिस-जिस रूप में आत्मलाभ प्राप्त करते हों, उनका वह स्वभाव या स्वरूप परिणाम है, पर्याय है ।
१० कः पुनरसौ पर्याय: इत्याह-तद्भावः परिणामः ।" तस्वार्थश्लो० पृ० ४४० ।
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