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२१४ श्रागम-युग का जन-दर्शन
ही काल को स्वतन्त्र द्रव्य मानने न मानने की दो परम्पराएँ थीं, यह स्पष्ट है । वाचक उमास्वाति 'कालश्च इत्येके ( ५.३८ ) सूत्र से यह सूचित करते हैं, कि वे काल को पृथक् द्रव्य मानने के पक्षपाती नहीं थे । काल को पृथक् नहीं मानने का पक्ष प्राचीन मालूम होता है, क्योंकि लोक क्या है ? इस प्रश्न का उत्तर श्वेताम्बर एवं दिगम्बर दोनों के मत से एक ही है कि लोक पंचास्तिकायमय है । कहीं यह उत्तर नहीं देखा गया, कि लोक षड्द्रव्यात्मक है । अतएव मानना पड़ता है, कि जैनदर्शन में काल को पृथक् मानने की परम्परा उतनी प्राचीन नहीं । यही कारण है, कि श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों में काल के स्वरूप के विषय में मतभेद भी देखा जाता है" ।
१
उत्तराध्ययन में काल का लक्षण है " वत्तणालक्खणो कालो" ( २८.१० ) । किन्तु वाचक ने काल के विषय में कहा है कि 'वर्तना परिणामः क्रिया परत्वापरत्वे च कालस्य " ( ५.२२ ) । वाचक का यह कथन वैशेषिक सूत्र से " प्रभावित है ।
पुद्गल द्रव्य :
आगम में पुद्गलास्तिकाय का लक्षण 'ग्रहण' किया गया है— " गहणलक्खणे णं पोग्गलत्थिकाए" ( भगवती - १३. ४.४८१) । " गुणश्रो गहणगुणे" ( भगवती - २.१०.११७ । स्थानांग सू० ४४१ ) इस सूत्र से यह फलित होता है, कि वस्तु का अव्यभिचारी - सहभावी गुण ही आगमकार को लक्षण रूप से इष्ट था । केवल पुद्गल के विषय में ही नहीं, किन्तु
१" इसमें एक ही अपवाद उत्तराध्ययन का है २८.७.। किन्तु इसका स्पष्टीकरण यही है कि वहाँ छह द्रव्य मानकर वर्णन किया है। अतएव उस वर्णन के साथ संगति रखने के लिए लोक को छह द्रव्यरूप कहा है । श्रन्यत्र द्रव्य मानने वालों ने भी लोक को पंचास्तिकायमय ही कहा है । जैसे प्राचार्य कुन्दकुन्द षड्द्रव्यवादी होते हुए भी लोक को जब पंचास्तिकायमय ही कहते हैं, तब उस परम्परा की प्राचीनता स्पष्ट हो जाती है ।
१६ चौथा - कर्मग्रन्थ पृ० १५८ ।
१७ वैशे ०२.२.६.
૧ प्रज्ञापना पद १ । भगवती ७.१०.३०४० । अनुयोग० सू० १४४
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