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प्रागमोत्तर जन-दर्शन
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५ स्पर्शनेन्द्रियजन्य व्यंजनावग्रह
अर्थावग्रह, ईहा, अवाय और धारणा ५ रसनेन्द्रियजन्य ५ घ्राणेन्द्रियजन्य ५ श्रोत्रेन्द्रियजन्य ४ चक्षुरिन्द्रियजन्य अर्थावग्रहादि ४ अनिन्द्रियजन्य अर्थावग्रहादि मतिज्ञान के एक-सौ अड़सठ भेद : उक्त अठाईस भेद के प्रत्येक के १. बहु, २. बहुविध, ३. क्षिप्र, ४. अनिश्रित, ५. असंदिग्ध और ६. ध्रुव ये छह भेद करने से २८४६=१६८ भेद होते हैं। मतिज्ञान के तीन-सौ छत्तीस भेद : उक्त २८ भेद के प्रत्येक के-१. बहु, २. अल्प, ३. बहुविध ४. अल्पविध, ५. क्षिप्र, ६. अक्षिप्र, ७. अनिश्रित, ८. निश्रित, ९. असंदिग्ध, १०. संदिग्ध, ११. ध्रुव और १२. अध्रुव ये बाहर भेद करने से २८४१२= ३३६ होते हैं ।
मतिज्ञान के ३३६ भेद के अतिरिक्त वाचक ने प्रथम १६८ जो भेद दिए है, उसमें स्थानांगनिर्दिष्ट अवग्रहादि के प्रतिपक्ष-रहित छही भेद मानने की परम्परा कारण हो सकता है। अन्यथा वाचक के मत से जब अवग्रहादि बह्वादि से इतर होते हैं तो १६८ भेद नहीं हो सकते। २८ के बाद ३३६ ही को स्थान मिलना चाहिए।
इससे हम कह सकते हैं, कि प्रथम अवग्रहादि के बह्वादि भेद नहीं किए जाते थे । जब से किए जाने लगे, केवल छह ही भेदों ने सर्व प्रथम स्थान पाया और बाद में १२ भेदों ने। अवग्रहादि के लक्षण और पर्याय :
नन्दीसूत्र में मतिज्ञान के अवग्रहादि भेदों का लक्षण तो नहीं किया गया, किन्तु उनका स्वरूपबोध पर्यायवाचक शब्दों के द्वारा और
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