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आगम-युग का जैन-दर्शन
दृष्टान्त द्वारा कराया गया है। वाचक ने अवग्रहादि मतिभेदों का लक्षण कर दिया है और पर्यायवाचक शब्द भी दे दिए हैं। ये पर्यायवाचक शब्द एक ही अर्थ के बोधक हैं, या नाना अर्थ के ? इस विषय को लेकर टीकाकारों में विवाद हुअा है । उसका मूल यही मालूम होता है, कि मूलकार ने पर्यायों का संग्रह करने में दो बातों का ध्यान रखा है । वे ये हैंसमानार्थक शब्दों का संग्रह करना और सजातीय ज्ञानों का संग्रह करने के लिए तद्वाचक शब्दों का संग्रह भी करना । अर्थ-पर्याय और व्यञ्जनपर्याय दोनों का संग्रह किया गया है।
यहाँ नन्दी और उमास्वाति के पर्याय शब्दों का तुलनात्मक कोष्ठक देना उपयुक्त होगा
विना यं लोकानामपि न घटते संव्यवहृतिः, समर्था नैवार्थानधिगमयितु शब्द-रचना। वितण्डा चण्डाली स्पृशति च विवाद-व्यसनिनं, नमस्तस्मै कस्मैचिदनिशमनेकान्त-महसे ॥
-अनेकान्त-व्यवस्था
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