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श्रागमोत्तर जैन दर्शन २२६
तो यह है, कि क्या नय वस्तुतः किसी एक तत्त्व के विषय में तन्त्रान्तरीयों के नाना मतवाद हैं, या जैनाचार्यों के ही पारस्परिक मतभेद को व्यक्त करते हैं४५ ?
इस प्रश्न के उत्तर से ही नय का स्वरूप वस्तुतः क्या है, या वाचक के समयपर्यन्त नय- विचार की व्याप्ति कहाँ तक थी ? इसका पता लगता है । वाचक ने कहा है, कि नयवाद यह तन्त्रान्तरीयों का वाद नहीं है और न जैनाचार्यों का पारस्परिक मतभेद । किन्तु वह तो "ज्ञेयस्य तु श्रर्थस्याध्यवसायान्तराणि एतानि ।” (१,३५ ) है । ज्ञेय पदार्थ के नाना अध्यवसाय हैं । एक ही अर्थ के विषय में भिन्न-भिन्न अपेक्षाओं से होने वाले नाना प्रकार के निर्णय हैं । ऐसे नाना निर्णय नय-भेद से किस प्रकार होते हैं, इसे दृष्टान्त से वाचक ने स्पष्ट किया है ।
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एक ही अर्थ के विषय में ऐसे अनेक विरोधी निर्णय होने पर क्या विप्रतिपत्ति का प्रसंग नहीं होगा ? ऐसा प्रश्न उठाकर अनेकान्तवाद के आश्रय से उन्होंने जो उत्तर दिया है, उसी में से विरोध के शमन या समन्वय का मार्ग निकल आता है। उनका कहना है, कि एक ही लोक को महासामान्य सत् की अपेक्षा से एक; जीव और अजीव के भेद से दो; द्रव्य गुण और पर्याय के भेद से तीन; चतुर्विध दर्शन का विषय होने से चार; पांच अस्तिकाय की अपेक्षा से पांच छह द्रव्यों की अपेक्षा से छह कहा जाता है । जिस प्रकार एक ही लोक के विषय में अपेक्षा भेद से ऐसे नाना निर्णय होने पर भी विवाद को कोई स्थान नहीं, उसी प्रकार नयाश्रित नाना अध्यवसायों में भी विवाद को अवकाश नहीं है
"यथैता न विप्रतिपत्तयोऽथ चाध्यवसायस्थानान्तराणि एतानि, तद्वन्नयवादाः ।" १,३५ ।
धर्मास्तिकाय आदि किसी एक तत्त्व के बोध - प्रकार मत्यादि के भेद से भिन्न होते हैं । एक ही वस्तु प्रत्यक्षादि चार प्रमाणों के द्वारा ४५ " किमेते तन्त्रान्तरीया वाबिन, श्राहोस्वित् स्वतन्त्रा एवं चोदकपक्षग्राहिणो मतिमेदेन विप्रधाविता इति । १,३५ ।
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