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प्रागमोसर जैन-दर्शन
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है, कि केवलज्ञान के समय अन्य चार ज्ञान होते हैं, कि नहीं? इस विषय को लेकर आचार्यों में मतभेद था। कुछ आचार्यों का कहना था कि केवलज्ञान के होने पर मत्यादि का अभाव नहीं हो जाता, किन्तु अभिभव हो जाता है, जैसे सूर्य के उदय से चन्द्र नक्षत्रादि का अभिभव हो जाता है । इस मत को अमान्य करके वाचक ने कह दिया है कि-'क्षयोपशमजानि चत्वारि ज्ञानानि पूर्वाणि, क्षयादेव केवलम् । तस्मान केवलिनः शेषाणि ज्ञानानि भवन्ति ।" तत्वार्थ भाष्य १,३१ । उनके इस अभिप्राय को आगे के सभी जैन दार्शनिकों ने मान्य रखा है।
एकाधिक ज्ञानों का व्यापार एक साथ हो सकता है कि नहीं? इस प्रश्न का उत्तर दिया है, कि प्रथम के मत्यादि चार ज्ञानों का व्यापार (उपयोग) क्रमशः होता है। किन्तु केवल ज्ञान और केवल दर्शन का व्यापार युगपत् ही होता है । इस विषय को लेकर जैन दार्शनिकों में काफी मतभेद हो गया है। मंति-श्रुत का विवेक :
नन्दीसूत्रकार का अभिप्राय है कि मति और श्रुत अन्योन्यानुगतअविभाज्य हैं अर्थात् जहाँ मतिज्ञान होता है, वहाँ श्रुतज्ञान, और जहाँ श्रुतज्ञान होता है, वहाँ मतिज्ञान होता ही है३३ । नन्दीकार ने किसी आचार्य का मत उद्धृत किया है कि-"मइ पुव्वं जेण सुयं न मई सुयपुब्विया" (सू० २४) अर्थात् श्रुत ज्ञान तो मतिपूर्वक है, किन्तु मति श्रुतपूर्वक नहीं । अतएव मति और श्रुत का भेद होना चाहिए । मति
और श्रुतज्ञान की इस भेद-रेखा को मानकर वाचक ने उसे और भी स्पष्ट किया कि-"उत्पन्नाविनष्टार्थग्राहकं सांप्रतकालविषयं मतिज्ञानं श्रुतज्ञानं तु त्रिकाल विषयम्. उत्पन्न विनष्टानुत्पन्नार्थग्राहकमिति ।" तत्त्वार्थ भाष्य १,२० । इसी भेदरेखा को आचार्य,जिनभद्र ने और भी पुष्ट किया है ।
3१ तत्वार्थ भा० १.३१ । 3* ज्ञानबिन्दु-परिचय पृ० ५४ । 33 नन्दी सूत्र २४ । 3४ "श्रुतं मतिपूर्वम्" तत्त्वार्थ १.२० । तत्वार्यभा० १.३१ ।
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