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प्रागमोत्तर जैन-दर्शन
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"रूपिणः पुद्गलाः" में रूप शब्द का क्या अर्थ है ? इसका उत्तर"रूपं मूतिः मूश्रियाश्च स्पर्शादय इति ।" (तत्त्वार्थ भा० ५.३) इस वाक्य से मिल जाता है । रूप शब्द का यह अर्थ, बौद्ध धर्म प्रसिद्ध नामरूपगत रूप० शब्द के अर्थ से मिलता है।
वैशेषिक मन को मूर्त मानकर भी रूप आदि से रहित मानते हैं। उसका निरास 'रूपं मूर्तिः' कहने से हो जाता है। इन्द्रिय-निरूपण :
वाचक ने इन्द्रियों के निरूपण में कहा है कि इन्द्रियाँ पाँच ही हैं। पाँच संख्याका ग्रहण करके उन्होंने नैयायिकों के षडिन्द्रियवाद और सांख्यों के एकादशेन्द्रियवाद तथा बौद्धों के ज्ञानेन्द्रियवाद का निरास किया है। अमूर्त द्रव्यों को एकत्रावगाहना :
एक ही प्रदेश में धर्मादि सभी द्रव्यों का अस्तित्व कैसे हो सकता है ? यह प्रश्न आगमों में चचित देखा गया। पर वाचक ने इसका उत्तर दिया है, कि धर्म-अधर्म आकाश और जीव की परस्पर में वत्ति और पुद्गल में उन सभी की वृत्ति का कोई विरोध नहीं, क्योंकि वे अमूर्त हैं।
___ ऊपर वणित तथा अन्य अनेक विषयों में वाचक उमास्वाति ने अपने दार्शनिक पाण्डित्य का प्रदर्शन किया है । जैसे जीव की नाना प्रकार की शरीरावगहना की सिद्धि, (५.१६), अपवर्त्य और अनपवर्त्य आयुषों की योगदर्शन भाष्य का अवलम्बन करके सिद्धि (२.५२) । प्रमाण-निरूपण :
इस बात की चर्चा मैंने पहले को है, कि आगम काल में स्वतन्त्र जैनदृष्टि से प्रमाण की चर्चा नहीं हुई है । अनुयोगद्वार में ज्ञान को प्रमाण कह कर भी स्पष्ट रूप से जैनागम में प्रसिद्ध पाँच ज्ञानों को प्रमाण नहीं कहा है । इतना ही नहीं, बल्कि जैनदृष्टि से ज्ञान के प्रत्यक्ष और
२० "चत्तारि च महाभूतानि चतुम्नं च महाभूतानं उपादाय रूपं ति दुविधम्पेतं. रुपं एकादसविधेन संगह-गच्छति ।" अभिधम्मत्थसंगह ६.१ से ।
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