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प्रमाण-खण्ड
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अवयव होने की बात कही है किन्तु अन्यत्र उन्होंने मात्र उदाहरण या हेतु और उदाहरण से भी अर्थसिद्धि होने की बात कही है।४० दश अवयवों को भी उन्होंने दो प्रकार से गिनाया है।४१ इस प्रकार भद्रबाहु के मत में अनुमानवाक्य के दो, तीन, पांच, दश, दश इतने अवयव होते हैं ।
प्राचीन वाद-शास्र का अध्ययन करने से पता चलता है कि प्रारम्भ में किसी साध्य की सिद्धि में हेतु की अपेक्षा दृष्टांत की सहायता अधिकांश में ली जाती रही होगी । यही कारण है कि बाद में जब हेतु का स्वरूप व्याप्ति के कारण निश्चित हुआ और हेतु से ही मुख्यरूप से साध्यसिद्धि मानी जाने लगी तथा हेतु के सहायक रूप से ही दृष्टान्त या उदाहरण का उपयोग मान्य रहा, तब केवल दृष्टांत के बल से की जाने वाली साध्य सिद्धि को जात्युत्तरों में समाविष्ट किया जाने लगा। यह स्थिति न्यायसूत्र में स्पष्ट है । अतएव मात्र उदाहरण से साध्य सिद्धि होने की भद्रबाहु की बात किसी प्राचीन परंपरा की ओर संकेत करती है, यह मानना चाहिए ।
आचार्य मैत्रेय ने४२ अनुमान के प्रतिज्ञा, हेतु और दृष्टांत ये तीन अवयव माने हैं । भद्रबाहु ने भी उन्हीं तीनों को निर्दिष्ट किया है । माठर और दिग्नाग ने भी पक्ष, हेतु और दृष्टान्त ये तीन ही अवयव माने हैं और पांच अवयवों का मतान्तर रूप से उल्लेख किया है।
पांच अवयवों में दो परम्पराएँ हैं-एक माठरनिर्दिष्ट और प्रशस्त संमत तथा दूसरी न्याय-सूत्रादि संमत । भद्रबाहु ने पांच अवयवों में न्याय सूत्र की परम्परा का ही अनुगमन किया है। पर दश अवयवों के विषय में भद्रबाहु का स्वातंत्र्य स्पष्ट है। न्यायभाष्यकार ने भी दश अवयवों का उल्लेख किया है, किन्तु भद्र बाहुनिर्दिष्ट दोनों दश प्रकारों से वात्स्यायन
८° गा० ४६। ४१ गा० ६२ से तथा १३७ । ४२ J. R. A. S. 1929, P. 476 ।
४३ प्रशस्तपाद ने उन्हीं पांच अवयवों को माना है जिनका निर्देश माठर ने मतान्तर रूप से किया।
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