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भागमोत्तर जैन दर्शन
आगमों के आधार पर सूत्रबद्ध किया है और उन सूत्रों के स्पष्टीकरण के लिए स्वोपज्ञ भाष्य की भी रचना की है । वाचक उमास्वाति ने तत्त्वार्थ सूत्र में आगमों की बातों को संस्कृत भाषा में व्यवस्थित रूप से रखने का प्रयत्न तो किया ही है, किन्तु उन विषयों का दार्शनिक ढंग से समर्थन उन्होंने क्वचित् ही किया है । यह कार्य तो उन्होंने अकलंक आदि समर्थ टीकाकारों के लिए छोड़ दिया है । अतएव तत्त्वार्थ सूत्र में प्रमेय-तत्व और प्रमाण तत्त्व के विषय में सूक्ष्म दार्शनिक चर्चा या समर्थन की आशा नहीं करना चाहिए, तथापि उसमें जो अल्प मात्रा में ही सही, दार्शनिक विकास के जो सीमा - चिन्ह दिखाई देते हैं, उनका निर्देश करना आवश्यक है । प्रथम प्रमेय तत्व के विषय में चर्चा की जाती है ।
प्रमेय-निरूपण :
तत्त्वार्थ सूत्र और उसका स्वोपज्ञ भाष्य यह दार्शनिक भाष्य-युग की कृति है । अतएव वाचक ने उसे दार्शनिक सूत्र और भाष्य की कोटि का ग्रन्थ बनाने का प्रयत्न किया है । दार्शनिक सूत्रों की यह विशेषता है कि उनमें स्वसंमत तत्त्वों का निर्देश प्रारम्भ में ही सत्, सत्त्व, अर्थ, पदार्थ या तत्त्व एवं तत्त्वार्थ जैसे शब्दों से किया जाता है । अतएव जैन दृष्टि से भी उन शब्दों का अर्थ निश्चित करके यह बताना आवश्यक हो जाता है कि तत्त्व कितने हैं ? वैशेषिक सूत्र में द्रव्यआदि छह को पदार्थ कहा है ( १. १. ४) किन्तु अर्थसंज्ञा द्रव्य, गुण और कर्म की ही कही ग है ( 5. २. ३. ) । सत्ता सम्बन्ध के कारण सत् यह पारिभाषिक संज्ञा भी इन्हीं तीन की रखी गई है ( १. १.८ ) । न्यायसूत्रगत प्रमाणआदि सोलह तत्त्वों को भाष्यकार ने सत् शब्द से व्यवहृत किया है3 | सांख्यों के मत से प्रकृति और पुरुष ये दो ही तत्त्व माने गए हैं ।
★ देखो, 'तस्वार्थसूत्र जनागमसमन्वय' ।
3 "सच्च खलु षोडशधा व्यूढमुपवेक्ष्यते' न्यायभा० १.१.१. ।
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