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आगम-युग का जैन-दर्शन
अभी विद्वानों का एकमत नहीं । आचार्य कुन्दकुन्द का समय जो भी माना जाए, किन्तु तत्त्वार्थ और आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थगत दार्शनिक विकास की ओर यदि ध्यान दिया जाए, तो वाचक उमास्वाति के तत्त्वार्थगत जैनदर्शन की अपेक्षा आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थगत जैनदर्शन का रूप विकसित है, यह किसी भी दार्शनिक से छुपा नहीं रह सकता । अतएव दोनों के समय विचार में इस पहलू को भी यथायोग्य स्थान अवश्य देना चाहिए। इसके प्रकाश में यदि दूसरे प्रमाणों का विचार किया जाएगा, तो संभव है दोनों के समय का निर्णय सहज में हो सकेगा।
प्रस्तुत में दार्शनिक विकास क्रम का दिग्दर्शन करना मुख्य है । अतएव आचार्य कुन्दकुन्द और वाचक के पूर्वापर-भाव के प्रश्न को अलग रख कर ही पहले वाचक के तत्त्वार्थ के आश्रय से जैनदार्शनिक तत्त्व की विवेचना करना प्राप्त है और उसके बाद ही आचार्य कुन्दकुन्द की जैनदर्शन को क्या देन है उनकी चर्चा की जाएगी । यह जान लेने पर क्रम-विकास कैसा हुआ है, यह सहज ही में ज्ञात हो सकेगा।
दार्शनिक सूत्रों की रचना का युग समाप्त हो चुका था, और दार्शनिक सूत्रों के भाष्यों की रचना भी होने लगी थी। किन्तु जैन परम्परा में अभी तक सूत्रशैली का संस्कृत ग्रन्थ एक भी नहीं बना था। इसी त्रुटि को दूर करने के लिए सर्वप्रथम वाचक उमास्वाति ने तत्त्वार्थ सूत्र की रचना की। उनका तत्त्वार्थ जैन साहित्य में सूत्र शैली का सर्वप्रथम ग्रन्थ है, इतना ही नहीं, किन्तु जैन साहित्य के संस्कृत भाषा-निबद्ध ग्रन्थों में भी वह सर्वप्रथम है। जिस प्रकार बादरायण ने उपनिषदों का दोहन करके ब्रह्म-सूत्रों की रचना के द्वारा वेदान्त दर्शन को व्यवस्थित किया है, उसी प्रकार उमास्वाति ने आगमों का दोहन करके तत्त्वार्थ सूत्र की रचना के द्वारा जैन दर्शन को व्यवस्थित करने का प्रयत्न किया है। उसमें जैन तत्त्वज्ञान, आचार, भूगोल, खगोल, जीव-विद्या, पदार्थविज्ञान आदि नाना प्रकार के विषयों के मौलिक मन्तव्यों को मूल
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