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प्रमाण-खण्ड
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बल्कि श्रोता या पाठक के कारण भी प्रामाण्य या अप्रामाण्य का निर्णय करना पड़ता है । अतएव यह आवश्यक हो जाता है, कि वक्ता और श्रोता दोनों की दृष्टि से आगम के प्रामाण्य का विचार किया जाए।
शास्त्र की रचना निष्प्रयोजन नहीं, किन्तु श्रोता को अभ्युदय और निःश्रेयस मार्ग का प्रदर्शन करने की दृष्टि से ही है---यह सर्वसंमत है। किन्तु शास्त्र की उपकारकता या अनुपकारकता मात्र शब्दों पर निर्भर न होकर श्रोता की योग्यता पर भी निर्भर है। यही कारण है कि एक ही शास्त्रवचन के नाना और परस्पर विरोधी अर्थ निकाल कर दार्शनिक लोग नाना मतवाद खड़े कर देते हैं। एक भगवदगीता या एक ही ब्रह्मसूत्र कितने विरोधी वादों का मूल बना हुआ है। अतः श्रोता की दृष्टि से किसी एक ग्रन्थ. को नियमतः सम्यक् या मिथ्या कहना या किसी एक ग्रन्थ को ही आगम कहना, निश्चय दृष्टि से भ्रमजनक है । यही सोचकर मूल ध्येय मुक्ति की पूर्ति में सहायक ऐसे सभी शास्त्रों को जैनाचार्यों ने सम्यक् या प्रमाण कहा हैं। यह व्यापक दृष्टि बिन्दु आध्यात्मिक दृष्टि से जैन परंपरा में पाया जाता है। इस दृष्टि के अनुसार वेदादि सब शास्त्र जैनों को मान्य हैं। जिस जीव की श्रद्धा सम्यक हैं, उसके सामने कोई भी शास्त्र आ जाए वह उसका उपयोग मोक्ष मार्ग को प्रशस्त बनाने में ही करेगा। अतएव उसके लिए सब शास्त्र प्रामाणिक हैं, सम्यक् हैं किन्तु जिस जीव की श्रद्धा ही विपरीत है, यानी. जिसे मुक्ति की कामना ही नहीं उसके लिए वेदादि तो क्या तथाकथित
जैनागम भी मिथ्या है, अप्रमाण हैं। इस दृष्टि विन्दु में सत्य का आग्रह है सांप्रदायिक कदागृह नहीं-'भारहं रामायणं...चत्तारि य वेया संगोवंगा-एयाई मिच्छादिहिस्स मिच्छत्तपरिगहियाई मिच्छासुयं । एयाई चेव सम्मदिहिस्स सम्मत्तपरिग्गहियाई सम्मसुयं-नंदी-४१ ।
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