________________
"जेसि पि श्रत्थि श्राया वसव्वा ते वि ग्रम्ह वि स प्रत्थि । किन्तु प्रकत्ता न भवइ वेययइ जेा सुहदुक्खं ॥ ७५ ॥ " (२) उपालम्भ - दूसरे के मत को दूषित करना उपालम्भ है । जैसे चार्वाक को कहना कि यदि आत्मा नहीं है, तो 'आत्मा नहीं है' ऐसा तुम्हारा कुविज्ञान भी संभव नहीं है । अर्थात् तुम्हारे इस कुविज्ञान को स्वीकार करके भी हम कह सकते हैं, कि उससे आत्माभाव सिद्ध नहीं । क्योंकि 'आत्मा है' ऐसा ज्ञान हो या 'आत्मा नहीं है' ऐसा कुविज्ञान हो ये दोनों कोई चेतन जीव के अस्तित्व के बिना संभव नहीं, क्योंकि अचेतन घट में न ज्ञान है न कुविज्ञान - दशवै० नि० ७६-७७ ।
वाद-विद्या-खण्ड
उपालम्भ का दार्शनिकों में सामान्य अर्थ तो यह किया जाता है कि दूसरे के पक्ष में दूषण का उद्भावन करना, , २५ किन्तु चरक ने वाद पदों में भी उपालम्भ को स्वतन्त्र रूप से गिनाया है और कहा है कि “उपालम्भो नाम हेतोर्दोषवचनम् ।" ( ५६.) अर्थात् चरक के अनुसार हेत्वाभासों का उद्भावन उपालम्भ है । न्यायसूत्र का हेत्वाभासरूप निग्रहस्थान ( ५.२.२५) ही चरक का उपालम्भ है । स्वयं चरक ने भी अहेतु (५७) नामक एक स्वतन्त्र वादपद रखा है । अहेतु का उद्भावन ही उपालम्भ है । तर्कशास्त्र ( पृ० ४० ) और उपायहृदय में भी ( पृ० १४ ) हेत्वाभास का वर्णन आया है । विशेषता यह है कि उपायहृदय में हेत्वाभास का अर्थ विस्तृत है । छल और जाति का भी समावेश हेत्वाभास में स्पष्ट रूप से किया है ।
प्रश्न
-आत्मा क्यों नहीं है ? उत्तर - क्योंकि परोक्ष है ।
(३) पृच्छा -- प्रश्न करने को पृच्छा कहते हैं - अर्थात् उत्तरोत्तर प्रश्न करके परमत को असिद्ध और स्वमत को सिद्ध करना पृच्छा है, जैसे चार्वाक से प्रश्न करके जीवसिद्धि करना ।
१६३
२५ न्याय सूत्र १.२.१ ।
प्रश्न-यदि परोक्ष होने से नहीं तो तुम्हारा आत्मनिषेधक कुविज्ञान भी दूसरों को परोक्ष है अतएव नहीं है। तंब जीवनिषेध कैसे होगा ?
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org