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मागम युग का जैन-दर्शन
जीव अन्य है, शरीर अन्य है । तो दोनों अन्यशब्दवाच्य होने से एक हैं ऐसा यदि प्रतिवादी कहे तो उसके उत्तर में कहना कि परमाणु अन्य है, द्विप्रदेशी अन्य है, तो दोनों अन्य शब्द वाच्य होने से एक मानना चाहिएयह तदन्यवस्तूपन्यास है-दशवै० नि० गा० ८४ । - यह स्पष्ट रूप से प्रसंगापादन है । पूर्वोक्त व्यंसक और लूषक हेतु से क्रमशः पूर्व पक्ष और उत्तर पक्ष की तुलना करना चाहिए।
(३) प्रतिनिभोपन्यास-वादी के 'मेरे वचन में दोष नहीं हो सकता' ऐसे साभिमान कथन के उत्तर में प्रतिवादी भी यदि वैसा ही कहे तो वह प्रतिनिभोपन्यास है। जैसे किसी ने कहा कि 'जीव सत् है' तब उसको कहना कि 'घट भी सत् है, तो वह भी जीव हो जाएगा' । इसका लौकिक उदाहरण नियुक्तिकार ने एक संन्यासी का दिया है। उसका दावा था कि मुझे कोई अश्रुत बात सुना दे तो उसको मैं सुवर्णपात्र दूंगा। धूर्त होने से अश्रुत बात को भी श्रुत बता देता था। तब एक पुरुष ने उत्तर दिया कि तेरे पिता से मेरे पिता एक लाख मांगते हैं । यदि श्रुत है तो एक लाख दो, अश्रुत है तो सुवर्णपात्र दो। इस तरह किसी को उभयपाशारज्जुन्याय से उत्तर देना प्रतिनिभोपन्यास है-दशवै० निc गा० ८५।
यह उपन्यास सामान्यच्छल है । इसकी तुलना लूषक हेतु से भी की जा सकती है।
अविशेष समा जाति के साथ भी इसकी तुलना की जा सकती है, यद्यपि दोनों में थोड़ा भेद अवश्य है ।
(४) हेतूपन्यास-किसी के प्रश्न के उत्तर में हेतु बता देना हेतूपन्यास है। जैसे किसी ने पूछा-आत्मा चक्षुरादि इन्दियग्राह्य क्यों नहीं ? तो उत्तर देना कि वह अतीन्द्रिय है-दशवै० नि० गा० ८५ ।
चरक ने हेतु के विषय में प्रश्न को अनुयोग कहा है और भद्रबाहु ने प्रश्न के उत्तर में हेतु के उपन्यास को हेतूपन्यास कहा है-यह हेतूपन्यास और अनुयोग में भेद है।
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