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वाद-विद्या-खण्ड
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उसका आचरण यदि विरुद्ध हो, तो वह युक्तिविरुद्ध है । जैसे कोई ब्राह्मण क्षत्रिय धर्म का पालन करे और मृगयादि की शिक्षा ले तो वह युक्तिविरुद्ध है । युक्तिविरुद्ध की इस व्याख्या को देखते हुए दुरुपनीत की तुलना उससे की जा सकती है।
(४) उपन्यास
(१) तद्वस्तूपन्यास-प्रतिपक्षी की वस्तु का ही उपन्यास करना अर्थात् प्रतिपक्षी के ही उपन्यस्त हेतु को उपन्यस्त करके दोष दिखाना तद्वस्तूपन्यास है । जैसे—किसी ने (वैशेषिक ने) कहा कि जीव नित्य है, क्योंकि अमूर्त है । तब उसी अमूर्तत्व को उपन्यस्त करके दोष देना कि कर्म तो अमूर्त होते हुए भी अनित्य हैं—दशवै० नि० चू० ८४ ।
आचार्य हरिभद्र ने इसकी तुलना साधर्म्यसमा जाति से की है। किन्तु इसका अधिक साम्य प्रतिदृष्टान्तसमा जाति से है- “क्रियावानात्मा क्रियाहेतुगुणयोगात् लोष्टवदित्युक्त प्रतिदृष्टान्त उपादीयते क्रियाहेतुगुणयुक्त आकाशं निष्क्रियं दृष्टमिति ।"
न्यायभा० ५.१.६ । साधर्म्यसमा और प्रतिदृष्टान्तसमा में भेद यह है, कि साधर्म्य समा में अन्यदृष्टान्त और अन्य हेतुकृत साधर्म्य को लेकर उत्तर दिया . जाता है, जब कि प्रतिदृष्टान्तसमा में हेतु तो वादिप्रोक्त ही रहता है केवल दृष्टान्त ही बदल दिया जाता है । तद्वस्तूपन्यास में भी यही अभिप्रेत है। अतएव उसकी तुलना प्रतिदृष्टान्त के साथ ही करना चाहिए ।
वस्तुतः देखो तो भङ्गयन्तर से हेतु की अनैकान्तिकताका उद्भावन करना हो तद्वस्तूपन्यास और प्रतिदृष्टान्तसमा जाति का प्रयोजन है।
उपायहृदयगत प्रति दृष्टान्तसम दूषण (पृ० ३०) और तर्कशास्त्रगत प्रतिदृष्टान्त खण्डन से यह तुलनीय है-पृ० २६ ।
(२) तदन्यवस्तूपन्यास-उपन्यस्त वस्तु से अन्य में भी प्रतिवादी की बात का उपसंहार कर पराभूत करना तदन्यवस्तूपन्यास है-जैसे
२८ “युक्तिविरुद्धो यथा, ब्राह्मणस्य क्षत्रधर्मानुपालनम्, मृगयादिशिक्षा च । क्षत्रियस्य ध्यानसमापत्तिरित युक्तिविरुद्धः। एवम्भूतो धमौं प्रज्ञा प्रबुद्ध्वैव सत्यं मन्यते।"
उपाय० पृ० १७॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only
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