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वाद-विद्या-खण्ड
कर जब विद्याबल से रोहगुप्त मुनि के विनाशार्थ बिच्छुओं का सर्जन किया, तब रोहगुप्त ने बिच्छुओं के विनाशार्थ मयूरों का सर्जन किया, जो अधर्मकार्य है। फिर भी प्रवचन के रक्षार्थ ऐसा करने को रोहगुप्त बाध्य थे - दशवै० नि० गा० ८१ चूर्णी ।
(२) प्रतिलोम - ' शाठ्यं कुर्यात् शठं प्रति' का अवलंबन करना प्रतिलोम है । जैसे रोहगुप्त ने पोट्टशाल परिव्राजक को हराने के लिए किया । परिव्राजक ने जानकर ही जैन पक्ष स्थापित किया, तब प्रतिवादी जैन मुनि रोहगुप्त ने उसको हराने के लिए ही जैन सिद्धान्त के प्रतिकूल त्रैराशिक पक्ष लेकर उसका पराजय किया । उसका यह कार्य अपसिद्धान्त के प्रचार में सहायक होने से आहरणतद्दोषकोटि में है २७ ।
चरक ने वाक्य दोषों को गिनाते हुए एक विरुद्ध भी गिनाया है । उसकी व्याख्या करते हुए कहा है-
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"विरुद्ध नाम घेवू दृष्टान्तसिद्धान्तसमयेविरुद्धम् ।" वही ५४ ।
इस व्याख्या को देखते हुए प्रतिलोम की तुलना 'विरुद्धवाक्य दोष' से की जा सकती है। न्यायसूत्रसंमत अपसिद्धान्त और प्रतिलोम में फर्क यह है कि अपसिद्धान्त तब होता हैं, जब शुरू में वादो अपने एक सिद्धान्त की प्रतिज्ञा करता है और बाद में उसकी अवहेलना करके उससे विरुद्ध वस्तु को स्वीकार कर कथा करता है - "सिद्धान्तमभ्युपेत्या नियमात् कथाप्रसंगोपसिद्धान्तः ।" न्याय सू० ५.२.२४ । किन्तु प्रतिलोम में वादी किसी एक संप्रदाय या सिद्धान्त को वस्तुतः मानते हुए भी वाद कथा प्रसंग में अपनी प्रतिभा के बल से प्रतिवादी को हराने की दृष्टि से ही स्वसंमत सिद्धान्त के विरोधी सिद्धान्त की स्थापना कर देता है । प्रतिलोम में यह आवश्यक नहीं कि वह शुरू में अपने सिद्धान्त की प्रतिज्ञा करे । किन्तु प्रतिवादी के मंतव्य से विरुद्ध मंतव्य को सिद्ध कर देता है । वैतण्डिक और प्रतिलोमिक में अंतर यह है, कि वैतण्डिक का कोई पक्ष नहीं होता अर्थात् किसी दर्शन की मान्यता से वह बद्ध नहीं होता । किन्तु प्रातिलोमिक वह है, जो किसी दर्शन से तो बद्ध होता है । किन्तु वाद- कथा में
२६ विशेषा० २४५६ ।
२७ विशेषा० गा० २४५६ |
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