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प्रागम-युग का जैन-दर्शन
इसी प्रकार सुचरित की भी चतुभंगी होती है ।
इन में से वाद के साथ सम्बन्ध प्रथम की दो धर्मकथाओं का है। संवेजनी और निवेदनी कथा तो वही है, जो गुरु अपने शिष्य को संवेग
और निर्वेद की वृद्धि के लिए उपदेश देता है । आक्षेपणी कथा के जो भेद हैं, उनसे प्रतीत होता है, कि यह गुरु और शिष्य के बीच होनेवाली धर्मकथा है,उसे जैनपरिभाषा में वीतराग कथा और न्यायशास्त्र के अनुसार तत्त्वबुभुत्सु-कथा कहा जा सकता है। इसमें आचारादि विषय में शिष्य की शंकाओं का समाधान आचार्य करते हैं । अर्थात् आचारादि के विषय में जो आक्षेप होते हों, उनका समाधान गुरु करता है । किन्तु विक्षेपणी कथा में स्वसमय और परसमय दोनों की चर्चा है। यह कथा गुरु और शिष्य में हो, तब तो वह वीतरागकथा ही है, पर यदि जयार्थी प्रतिवादी के साथ कथा हो, तब वह वाद-कथा या विवाद कथा में समाविष्ट है । विक्षेपणी के पहले प्रकार का तात्पर्य यह जान पड़ता है, कि वादी प्रथम अपने पक्ष की स्थापना करके प्रतिवादी के पक्ष में दोषोद्भावन करता है । दूसरा प्रकार प्रतिवादी को लक्ष्य में रखकर किया गया जान पड़ता है । क्योंकि उसमें परपक्ष का निरास और बाद में स्वपक्ष का स्थापन है । अर्थात् वह वादी के पक्ष का निराकरण करके अपने पक्ष की स्थापना करता है । तीसरी और चौथी विक्षेपणी कथा का तात्पर्य टीकाकार ने जो बताया है, उससे यह जान पड़ता है कि वादी प्रतिवादी के सिद्धान्त में जितना सम्यगंश हो, उसको स्वीकार करके मिथ्यांश का निराकरण करता है और प्रतिवादी भी ऐसा ही करता है।
निशीथभाष्य के पंचम उद्देशक में (पृ० ७६) कथा के भेद बताते हुए कहा है--
"वादो जप्प वितंडा पाइण्णगकहा य णिच्छयकहा य ।"
इससे प्रतीत होता है, कि टोका के युग में अन्यत्र प्रसिद्ध वाद, जल्प और वितण्डा ने भी कथा में स्थान पा लिया था । किन्तु इसकी विशेषचर्चा यहाँ प्रस्तुत नहीं । इतना ही प्रस्तुत है, कि मूल आगम में इन कथाओं ने जल्पआदि नामों से स्थान नहीं पाया है ।
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