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१७४ प्रागम-युग का जैन-दर्शन
बिना कारण श्रमण रथ-यात्रा में नहीं जा सकता ऐसा नियम है। क्योंकि रथ-यात्रा में शामिल होने से अनेक प्रकार के दोष लगते हैं(बृहत् गा० १७७१ से )। किन्तु कारण हो, तो रथ-यात्रा में अवश्य जाना चाहिए, यह अपवाद है । यदि नहीं जाता है, तो प्रायश्चित्तभागी होता है, ऐसा स्पष्ट विधान है— "कारणेषु तु समुत्पन्नेषु प्रवेष्टव्यम् यदि न प्रविशति तदा चत्वारो लघवः ।" बृहत्० टी० गा० १७८६ ।
रथ-यात्रा में जाने के अनेक कारणों को गिनाते हुए बृहत्कल्प के भाष्य में कहा गया है कि
"मा परवाई विग्धं करिज्ज वाई प्रश्रो विसइ ॥ १७६२ ॥" अर्थात् कोई परदर्शन का वादी रथ-यात्रा में विघ्न न करे इसलिए वादविद्या में कुशल वादी श्रमण को रथ यात्रा में अवश्य जाना चाहिए। उन के जाने से क्या लाभ होता है, उसे बताते हुए कहा है
"नवधम्माण थिरत्त पभावणा सासणे य बहुमायो।
अभिगच्छन्ति य विदुसा अविग्धपूया य सेयाए ॥ १७६३ ॥" वादी श्रमण के द्वारा प्रतिवादी का जब निग्रह होता है, तब अभिनव श्रावक अन्य धार्मिकों का पराभव देखकर जैनधर्म में दृढ हो जाते हैं। जैनधर्म की प्रभावना होती है। लोग कहने लग जाते हैं, कि जैन सिद्धांत अप्रतिहत है, इसीलिए ऐसे समर्थ वादी ने उसे अपनाया है। दूसरे लोग भी वाद को सुनकर जैनधर्म के प्रति आदर-शील होते हैं । वादी का वैदग्ध्य देखकर दूसरे विद्वान् उन के पास आने लगते हैं और धीरे-धीरे जैनधर्म के अनुयायी हो जाते हैं। इस प्रकार इन आनुषंगिक लाभों के अलावा रथ-यात्रा में श्रेयस्कर पूजा की निर्विघ्नता का लाभ भी है । अतएव वादी को रथयात्रा में अवश्य जाना चाहिए। निम्नलिखित श्लोक में धर्म प्रभावकों में वादी को भी स्थान मिला है।
___ "प्रावचनी धर्मकथी वादी नैमित्तिकस्तपस्वी च ।
जिनवचनज्ञश्च कविः प्रवचनमुद्भावयन्त्येते ॥ * गा० १७६० । ८ बृहत० टी० गा० १७६८ में उद्धत ।
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