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आगम-युग का जैन-दर्शन
है । भगवान् महावीर के शिष्यों में वादो की संख्या बताते हुए स्थानांग में कहा है
''समणस्स णं भगवओ महावीरस्स चत्तारिसया वादीणं सदेवमणुयासुराते परिसाते अपराजियाणं उक्कोसिता वादिसंपया हुत्था''स्थानांग ३८२ । यही बात कल्पसूत्र में (सू०.१४२) भी है।
स्थानांगसूत्र में जिन नव प्रकार के निपुण पुरुषों को गिनाया है उनमें भी वाद-विद्याविशारद का स्थान है--सू० ६७६ ।
धर्मप्रचार में वाद मुख्य साधन होने से वाद-विद्या में कुशल ऐसे वादी साधुओं के लिए आचार के कठोर नियम भी मृदु बनाए जाते थे। इसकी साक्षी जैनशास्त्र देते हैं। जैन आचार के अनुसार शरीर शुचिता परिहार्य है। साधु स्नानआदि शरीर-संस्कार नहीं कर सकता, इसी प्रकार स्निग्ध-भोजन की भी मनाई है। तपस्या के समय तो और भी रूक्ष भोजन का विधान है । साफ-सुथरे कपड़े पहनना भी अनिवार्य नहीं । पर कोई पारिहारिक तपस्वी साधू वादी हो और किसी सभा में वाद के लिए जाना पड़े, तब भी सभा की दृष्टि से और जैन धर्म की प्रभावना की दष्टि से उसे अपना नियम मदु करना पड़ता है, तब वह ऐसा कर लेता है। क्योंकि यदि वह सभा-योग्य शरीर संस्कार नहीं कर लेता,तो विरोधियों को जुगुप्सा का एक अवसर मिल जाता है। मलिनवस्त्रों का प्रभाव भी सभाजनों पर अच्छा नहीं पड़ता, अतएव वह साफ सुथरे कपड़े पहन कर सभा में जाता है। रूक्षभोजन करने से बुद्धि की तीव्रता में कमी न हो इसलिए वाद करने के प्रसंग में प्रणीत अर्थात् स्निग्ध भोजन लेकर अपनी बुद्धि को सत्त्वशाली बनाने का यत्न करता है । ये सब सकारण आपवादिक प्रतिसेवना हैं । प्रसंग पूर्ण हो जाने पर गुरु उसे अविधि पूर्वक अपवाद-सेवन के लिए हलका प्रायश्चित्त देकर शुद्ध कर देता है।
२ कल्पसूत्र सू० १६५ इत्यादि ।
3 "पाया वा वंतासिया उधोया, वा बुद्धिहेतु व पणीयभत्तं । तं वातिगं वा मइसत्तहेर समाजया सिचयं व सुकं ।' वृहत्कल्पभाष्य ६०३५ ।
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