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प्रागम-युग का जैन-दर्शन
व्याप्ति प्रसिद्ध न होने से तत्साधक अन्य प्रमाण की अपेक्षा रखने के कारण साध्यसिद्धि में विलम्ब होता हो उसे यापक कहते हैं ।
इसका लौकिक उदाहरण दिया गया है-किसी असाध्वी स्त्री ने अपने पति को ऊँट की लींडिया देकर कहा कि उज्जयिनी में प्रत्येक का एक रुपया मिलेगा अत एव वहीं जाकर बेचो । मूर्ख पति जब लोभवश उज्जयिनी गया तो उसे काफी समय लग गया। इस बीच उस स्त्री ने अपने जार के साथ कालयापन किया।
यापक का अर्थ टीकाकारों ने जैसा किया है ऊपर लिखा है। वस्तुतः उसका तात्पर्य इतना ही जान पड़ता है कि प्रतिवादी को समझने में देरी लगे वैसे हेतु के प्रयोग को यापक कहना चाहिए। यदि यापक का यही मतलब है तो इसकी तुलना अविज्ञातार्थ निग्रहस्थानयोग्य वाक्यप्रयोग से करना चाहिए । न्यायसूत्रकार ने कहा है कि वादी तीन दफह उच्चारण करे फिर भी यदि प्रतिवादी और पर्षत् समझ न सके तो वादी को अविज्ञातार्थ निग्रह स्थान प्राप्त होता है । अर्थात् न्यायसूत्रकार के मत से यापक हेतु का प्रयोक्ता निगृहीत होता है ।
"परिषत्प्रदिवादिम्यां त्रिरभिहितमपि अविज्ञातमविज्ञातार्थम् ।" न्यायसू० ५.२.६ ।
ऐसा ही मत उपायहृदय (पृ० १) और तर्कशास्त्र (पृ० ८) का भी है।
चरक संहिता में विगृह्यसंभाषा के प्रसंग में कहा है कि "तद्विद्येन सह कथयता त्वाविद्धदीर्घसूत्रसंकुलैर्वाक्यदण्डकैः कथयितव्यम् ।" विमानस्थान अ० ८. सू० २० । इसका भी उद्देश्य यापक हेतु के समान ही प्रतीत होता है।
_ वादशास्त्र के विकास के साथ-साथ यापक जैसे हेतु के प्रयोक्ता को निग्रहस्थान की प्राप्ति मानी जाने लगी यह न्यायसूत्र के अविज्ञात निग्रह स्थान से स्पष्ट है।
१५ "उन्भामिया य महिला जावगहेउम्मि उटलिंडाई।" दशव० नि० गा० ८७ ।
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