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प्रागम-युग का जैन-दर्शन
हैं उनका संबन्ध भी दोष से ही है ऐसा टीकाकार का अभिप्राय है । मूलकार का अभिप्राय क्या है कहा नहीं जा सकता। टीकाकार ने उन दस प्रकार के विशेष का जो वर्णन किया है वह इस प्रकार है
१. वस्तुदोषविशेष से मतलब है पक्षदोषविशेष, जैसे प्रत्यक्षनिराकृत, अनुमाननिराकृत, प्रतीतिनिराकृत, स्ववचननिराकृत, और लोकरूढिनिराकृत । . २. जन्म मर्म कर्म आदि विशेषों को लेकर किसी को वाद में दूषण देना तज्जातदोषविशेष है।
३. पूर्वोक्त मतिभंगादि जो आठ दोष गिनाए हैं वे भी दोषसामान्य की अपेक्षा से दोषविशेष होने से दोषविशेष कहे जाते हैं ।
४. एकाथिकविशेष अर्थात् पर्यायवाची शब्दों में जो कथञ्चिद् भेद विशेष होता है वह, अथवा एक ही अर्थ का बोध कराने वाले शब्द विशेष १३
५. कारणविशेष—परिणामिकारण और अपेक्षा कारण ये कारणविशेष हैं। अथवा उपादान, निमित्त, सहकारि, ये कारण विशेष हैं । अथवा कारणदोषविशेष का मतलब है युक्ति दोष । दोष सामान्य की अपेक्षा से युक्ति दोष यह एक विशेष दोष है ।
६. वस्तुं को प्रत्युत्पन्न ही मानने पर जो दोष हो वह प्रत्युत्पन्न दोष विशेष है। जैसे अकृताभ्यागम कृतविप्रणाशादि ।
७. जो दोष सर्वदा हो वह नित्य दोप विशेष है जैसे अभव्य में मिथ्यात्वादि । अथवा वस्तु को सर्वथा नित्य मानने पर जो दोष हो वह नित्यदोषविशेष है।
८. अधिकदोपविशेष वह है जो प्रतिपत्ति के लिये अनावश्यक ऐसे अवयवों का प्रयोग होने पर होता है।
* इस दोष के मूलकारका अभिप्राय पुनरुक्त निग्रहस्थान से (न्यायसू० ५.२. १४) और चरकसंमत अधिक नामक वाक्यदोषसे ("यद्वा सम्बद्धार्थमपि द्विरभिघोयते तत् पुनरुक्तत्वाद् अधिकम्" -विमान० प्र० ८. सू० ५४) हो तो आश्चर्य नहीं ।
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