________________
11
"जिणवयणं सिद्ध चैव भण्णए कत्थई उदाहरणं । प्रासज्ज उ सोयारं हेऊ वि कर्हिचि भण्णेज्जा ॥ यशवं० नि० ४६
प्रमाण -खण्ड
किस पुरुष का बनाया हुआ शास्त्र आगम रूप से प्रमाण माना जाए इस विषय में जैनों ने अपना जो अभिमत आगमिक काल में स्थिर किया है, उसे भी बता देना आवश्यक है । सर्वदा यह तो संभव नहीं कि तीर्थ प्रवर्तक और उनके गणधर मौजूद रहें और शंका स्थानों का समाधान करते रहें । इसी आवश्यकता में से ही तदतिरिक्त पुरुषों को भी प्रमाण मानने की परम्परा ने जन्म लिया और गणधर -प्रणीत आचारांग आदि अंगशास्त्रों के अलावा स्थविरप्रणीत अन्य शास्त्र भी आगमान्तर्गत होकर अंगबाह्य रूप से प्रमाण माने जाने लगे
"सुत्त गणधरकथिदं तहेव पत्त यबुद्धकथिदं च । सुकेवलिरा कथिदं श्रभिण्णदस पुव्वकथिदं च ॥ ५२
Jain Education International
१६३
इस गाथा के अनुसार गणधर कथित के अलावा प्रत्येकबुद्ध श्रुतकेवली और दशपूर्वी के द्वारा कथित भी सूत्र आगम में अन्तर्भूत है । प्रत्येकबुद्ध सर्वज्ञ होने से उनका वचन प्रमाण है । जैन परम्परा के अनुसार अंगबाह्य ग्रन्थों की रचना स्थविर करते हैं । ऐसे स्थविर दो प्रकार के होते हैं । सम्पूर्ण श्रुतज्ञानी और कम से कम दशपूर्वी । सम्पूर्ण श्रुतज्ञानी को चतुर्दशपूर्वी श्रुतकेवली कहते हैं । श्रुतकेवली गणधर प्रणीत संपूर्ण द्वादशांगीरूप जिनागम के सूत्र और अर्थ के विषय में निपुण होते हैं । अतएव उनकी ऐसी योग्यता मान्य है, कि वे जो कुछ कहेंगे या लिखेंगे उसका द्वादशाङ्गी रूप जिनागम के साथ कुछ भी विरोध हो नहीं सकता । जिनोक्त विषयों का संक्षेप या विस्तार करके तत्कालीन समाज के अनुकूल ग्रन्थ रचना करना ही उनका प्रयोजन होता है: प्रतएव संघ ने ऐसे ग्रन्थों को सहज ही में जिनागमान्तर्गत कर लिया है, इनका प्रामाण्य
५२. मूलाचार ५. ८० । जयघवला टीका में उद्धत है पृ० १५३ । ओघनिर्युक्ति की टीका में वह उद्धत है पृ० ३ ॥
५३. विशेषा ० ५५० । बृहत्० ११४ । तत्वार्थभा० १.२० । सर्वार्थ० १.२० ।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org