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प्रमाण-खण्ड
नहीं होता । अतएव वस्तुतः यह उपमान बन नहीं सकता, किन्तु व्यवहाराश्रित इसका उदाहरण शास्त्रकार ने बताया है। इसमें स्वकीय से उपमा दी जाती है। जैसे नीच ने नीच जैसा ही किया, दास ने दास जैसा ही किया । आदि ।
शास्त्रकार ने सर्ववैधर्म्य का जो उक्त उदाहरण दिया है, उसमें और सर्वसाधर्म्य के पूर्वोक्त उदाहरण में कोई भेद नहीं दिखता । वस्तुतः प्रस्तुत उदाहरण सर्वसाधर्म्य का हो जाता है।
न्याय-सूत्र में उपमान परीक्षा में पूर्व-पक्ष में कहा गया है कि अत्यन्त, प्रायः और एक देश से जहाँ साधर्म्य हो, वहाँ उपमान प्रमाण हो नहीं सकता है, इत्यादि । यह पूर्वपक्ष अनुयोगद्वारगत साधोपमान के तीन भेद की किसी पूर्व परम्परा को लक्ष्य में रख कर ही किया गया है यह उक्त सूत्र की व्याख्या देखने से स्पष्ट हो जाता है। इससे फलित यह होता है कि अनुयोग का उपमान वर्णन किसी प्राचीन परंपरानुसारी हैं ।५१
आगम-चर्चा--अनुयोगद्वार में आगम के दो भेद किए गए हैं १. लौकिक २. लोकोत्तर ।
१. लौकिक आगम में जैनेतर शास्त्रों का समावेश अभीष्ट है। जैसे महाभारत, रामायण, वेद आदि और ७२ कलाशास्त्रों का समावेश भी उसी में किया है।
२. लोकोत्तर आगम में जैन शास्त्रों का समावेश है। लौकिक आगमों के विषय में कहा गया है, कि अज्ञानी मिथ्यादृष्टि जीवों ने अपने स्वच्छन्दमति-विकल्पों से बनाए हैं। किन्तु लोकोत्तर-जैन आगम के विषय में कहा है कि वे सर्वज्ञ और सर्वदर्शी पुरुषों ने बनाए हैं ।
५० “सव्ववेहम्मे प्रोवम्मे नत्थि तहावि तेणेव तस्त प्रोवम्म कीरइ, जहा जीएण णीग्रसरिसं कयं, दासेण दाससरिसं कयं ।" इत्यादि ।
५१ देखो न्याया० टिप्पणी-पृष्ठ २२२-२२३ ।
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