________________
१३५
वस्तुतः इन्द्रियज प्रत्यक्ष को सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहना चाहिए । अर्थात् लोकव्यवहार के अनुरोध से ही इन्द्रियज मति को प्रत्यक्ष कहा गया है । वस्तुतः वह परोक्ष ही है । क्योंकि प्रत्यक्ष - कोटि में परमार्थतः आत्ममात्र सापेक्ष ऐसे अवधि, मन:पर्यय और केवल ये तीन ही हैं । अतः इस भूमिका में ज्ञानों का प्रत्यक्ष-परोक्षत्व व्यवहार इस प्रकार स्थिर हुआ१. अवधि, मन:पर्यय और केवल पारमार्थिक प्रत्यक्ष हैं । २. श्रुत परोक्ष ही है ।
३. इन्द्रियजन्य मतिज्ञान पारमार्थिक दृष्टि से परोक्ष है और व्यावहारिक दृष्टि से प्रत्यक्ष है ।
४. मनोजन्य मतिज्ञान परोक्ष ही है ।
आचार्य अकलंक ने तथा तदनुसारी अन्य जैनाचार्यों ने प्रत्यक्ष के सांव्यावहारिक और पारमार्थिक ऐसे जो दो भेद किए हैं सो उनकी नयी सूझ नहीं है । किन्तु उसका मूल नन्दीसूत्र और उसके जिनभद्रकृत स्पष्टीकरण में है |
ज्ञान चर्चा का प्रमाण चर्चा से स्वातन्त्र्य
पंच ज्ञानचर्चा के क्रमिक विकास की उक्त तीनों आगमिक भूमिका की एक खास विशेषता यह रही है कि इनमें ज्ञान चर्चा के साथ इतर दर्शनों में प्रसिद्ध प्रमाणचर्चा का कोई सम्बन्ध या समन्वय स्थापित नहीं किया गया है । इन ज्ञानों में ही सम्यक्त्व और मिथ्यात्व के भेद के द्वारा जैनागमिकों ने वही प्रयोजन सिद्ध किया है जो दूसरों ने प्रमाण और अप्रमाण के विभाग के द्वारा सिद्ध किया है । अर्थात् आगमिकों ने प्रमाण या अप्रमाण ऐसे विशेषण बिना दिए ही प्रथम के तीनों में अज्ञानविपर्यय - मिथ्यात्व की तथा सम्यक्त्व की संभावना मानी है. और अन्तिम दो में एकान्त सम्यक्त्व ही बतलाया है । इस प्रकार ज्ञानों को प्रमाण या अप्रमाण न कह करके भी उन विशेषणों का प्रयोजन तो दूसरी तरह से निष्पन्न कर ही दिया है ।
८
प्रमाण - खण्ड
Jain Education International
"एगन्तेण परोक्तं लिंगियमोहाइयं च पच्चक्खं ।
इन्दियमणोभवं जं तं संववहारपञ्चवखं ।" विशेषा० ६५ श्रौर इसकी स्वोपज्ञवृत्ति ।
For Private & Personal Use Only
1
www.jainelibrary.org