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आगम-युग का जैन दर्शन
इससे साफ है कि ज्ञानपक्ष में मनोजन्य मति को कौन सा प्रमाण कहा जाए तथा प्रमाण पक्ष में अनुमान और उपमान को कौन सा ज्ञान • कहा जाए-यह बात अनुयोगद्वार में अस्पष्ट है । वस्तुतः देखें तो जैन ज्ञान प्रक्रिया के अनुसार मनोजन्यमति जो कि परोक्ष ज्ञान है वह अनुयोग के प्रमाण वर्णन में कहीं समावेश नहीं पाता।
न्यायादिशास्त्र के अनुसार मानस ज्ञान दो प्रकार का है प्रत्यक्ष और परोक्ष। सुख-दुःखादि को विषय करने वाला मानस-ज्ञान प्रत्यक्ष कहलाता है और अनुमान उपमान आदि मानस ज्ञान परोक्ष कहलाता है । अतएव मनोजन्य मति जो कि जैनों के मत से परोक्ष ज्ञान है, उसमें अनुमान और उपमान को अन्तर्भूत कर दिया जाय तो उचित ही है । इस प्रकार पांच ज्ञानों का चार प्रमाणों में समन्वय घट जाता है। यदि यह अभिप्राय शास्त्रकार का भी है तो कहना होगा कि पर-प्रसिद्ध चार प्रमाणों का पंच ज्ञानों के साथ समन्वय करने की अस्पष्ट सूचना अनुयोगद्वार से मिलती है । किन्तु जैन-दृष्टि से प्रमाण विभाग और उसका पंचज्ञानों में स्पष्ट समन्वय करने का श्रेय तो उमास्वाति को ही है। .
इतनी चर्चा से यह स्पष्ट है कि जैनशास्त्रकारों ने आगम काल में जैन दृष्टि से प्रमाणविभाग के विषय में स्वतन्त्र विचार नहीं किया है, किन्तु उस काल में प्रसिद्ध अन्य दार्शनिकों के विचारों का संग्रह मात्र किया है।
प्रमाणभेद के विषय में प्राचीन काल में अनेक परम्पराएँ प्रसिद्ध रहीं। उनमें से चार और तीन भेदों का निर्देश आगम में मिलता है, जो पूर्वोक्त विवरण से स्पष्ट है । ऐसा होने का कारण यह है कि प्रमाण चर्चा में निष्णात ऐसे प्राचीन नैयायिकों ने प्रमाण के चार भेद ही माने हैं। उन्हीं का अनुकरण चरक और प्राचीन बौद्धों ने भी किया है । और इसी का अनुकरण जैनागमों में भी हुआ है । प्रमाण के तीन भेद मानने की परम्परा भी प्राचीन है। उसका अनुकरण सांख्य, चरक और बौद्धों में हुआ है। यही परम्परा स्थानांग के पूर्वोक्त सूत्र में सुरक्षित है । योगाचार बौद्धों ने तो दिग्नाग के सुधार को अर्थात् प्रमाण के दो भेद की परम्परा
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