________________
प्रमाण-खण्ड
१४७
को इन्द्रियों से पृथक् गिनाया है (१. १. ६.) और इन्द्रिय निरूपण में (१. १. १२)पांच बहिरिन्द्रियों का ही परिगणन किया गया है । इसलिए सामान्यतः कोई यह कह सकता है, कि न्याय सूत्रकार को मन इन्द्रिय रूप से इष्ट नहीं था किन्तु इसका प्रतिवाद करके वात्स्यायन ने कह दिया है कि मन भी इन्द्रिय है । मन को इन्द्रिय से पृथक् बताने का तात्पर्य यह है कि वह अन्य इन्द्रियों से विलक्षण है (न्यायभा० १. १. ४)। वात्स्यायन के इस स्पष्टीकरण के होते हुए भी तथा सांख्यकारिका में (का० २७) स्पष्ट रूप से इन्द्रियों में मन का अन्तर्भाव होने पर भी माठर ने प्रत्यक्ष को पांच प्रकार का बताया है । उससे फलित यह होता है कि लौकिक प्रत्यक्ष में स्पष्ट रूप से मनोजन्यज्ञान समाविष्ट नहीं था। इसी बात का समर्थन नन्दी और अनुयोगद्वार से भी होता है। क्योंकि उनमें भी लौकिक प्रत्यक्ष में पांच इन्द्रियजन्य ज्ञानों को ही स्थान दिया है। किन्तु इसका मतलब यह नहीं है, कि प्राचीन दार्शनिकों ने मानस ज्ञान का विचार ही नहीं किया हो। प्राचीन काल के ग्रन्थों में लौकिक प्रत्यक्ष में मानस प्रत्यक्ष को भी स्वतंत्र स्थान मिला है। इससे पता चलता है कि वे मानस प्रत्यक्ष से सर्वथा अनभिज्ञ नहीं थे । चरक में प्रत्यक्ष को इन्द्रियज
और मानस ऐसे दो भेदों में विभक्त किया है। इसी परम्परा का अनुसरण करके बौद्ध मैत्रेयनाथ ने भी योगाचार-भूमिशास्त्र में प्रत्यक्ष के चार भेदों में मानस प्रत्यक्ष को स्वतन्त्र स्थान दिया है । यही कारण है कि आगमों में सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष में मानस का स्थान न होने पर भी आचार्य अकलंकने उसे सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष रूप से गिनाया है।
अनुमान के भेद-अनुयोगद्वार सूत्र में तीन भेद किए
गए
१२ विमान-स्थान प्र० ४ सू० ५। प्र० ८ सू० ३६ । १3 J. R. A. S. 1929 p. 465-466. १४ देखो न्याया० टिप्पणी पृ० २४३।
१५ विशेष के लिए देखो प्रो० ध्रुव का 'त्रिविधमनुमानम्' ओरिएन्टल. कांग्रेस . के प्रथम अधिवेशन में पढ़ा गया व्याख्यान ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org