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१५४ श्रागम-युग का जैन-वर्शन
दृष्टसाधर्म्यवत् -- दृष्टसाधर्म्यवत् के दो भेद किए गए हैं१ सामान्यदृष्ट और २ विशेषदृष्ट। किसी एक वस्तु को देखकर तत्सजातीय सभी वस्तु का साधर्म्य ज्ञान करना या बहु वस्तु को देखकर किसी विशेष में तत्साधर्म्य का ज्ञान करना, यह सामान्यदृष्ट है, ऐसी सामान्यदृष्ट की व्याख्या शास्त्रकार को अभिप्रेत जान पड़ती है । शास्त्रकार ने इसके उदाहरण ये दिए हैं- जैसा एक पुरुष है, अनेक पुरुष भी वैसे ही हैं । जैसे अनेक पुरुष हैं, वैसा ही एक पुरुष है । जैसा एक कार्षापण है, अनेक कार्षापण भी वैसे ही हैं । जैसे अनेक कार्षापण हैं, एक भी वैसा ही है | 32
विशेषदृष्ट दृष्टसाधर्म्यवत् वह है जो अनेक वस्तुओं में से किसी एक को पृथक् करके उसके वैशिष्ट्य का प्रत्यभिज्ञान करता है । शास्त्रकार ने इस अनुमान को भी पुरुष और कार्षापण के दृष्टान्त से स्पष्ट किया है । यथा- कोई एक पुरुष बहुत से पुरुषों के बीच में से पूर्वदृष्ट पुरुष का प्रत्यभिज्ञान करता है, कि यह वही पुरुष है, या इसी प्रकार कार्षापण का प्रत्यभिज्ञान करता है, तब उसका वह ज्ञान विशेषदृष्ट साधर्म्यवत् अनुमान है 33 |
अनुयोगद्वार में दृष्टसाधर्म्यवत् के जो दो भेद किए गए हैं उनमें प्रथम तो उपमान से और दूसरा प्रत्यभिज्ञान से भिन्न प्रतीत नहीं होता । माठर आदि अन्य दार्शनिकों ने सामान्यतोदृष्ट के जो उदाहरण दिए हैं, उनसे अनुयोगद्वार का पार्थक्य स्पष्ट है ।
उपायहृदय में सूर्य-चन्द्र की गति का ज्ञान उदाहृत है । यही उदाहरण गौडपाद में, शबर में, न्यायभाष्य में और पिंगल में है ।
32 " से किं तं सामण्णदिट्ठ ? जहा एगो पुरिसो तहा बहवे पुरिसा जहा बहवे पुरिसा तहा एगो पुरियो । जहा एगो करिसावणो तहा बहवे करिसावणा, जहा बहवे करिसावणा तहा एगो करिसावणो ।”
33 " से जहाणामए केई पुरिसे कंचि पुरिसं बहूणं पुरिसाणं मज्भे पुण्वदिट्ठ पञ्चभिजाणिज्जा-प्रयं से पुरिसे । बहूणं करिसावणाणं मज्भे पुण्वदिट्ठ करिसावणं पच्चभिजाणिज्जा-श्रयं से करिसावणे ।"
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