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१३८ प्रागम-युष का जन-वर्शन .
चरक में वादमार्ग पदों में एक स्वतंत्र व्यवसाय पद है । "प्रथ व्यवसायः–व्यवसायो नाम निश्चयः" विमानस्थान प्र० ८ सू० ४७ ।
सिद्धसेन से लेकर सभी जैनतार्किकों ने प्रमाण को स्वपरव्यवसायि माना है । वार्तिककार शान्त्याचार्य ने न्यायावतारगत अवभास शब्द का अर्थ करते हुए कहा है कि___"प्रवभासो व्यवसायो न तु ग्रहणमात्रकम्" का० ३ ।
___ अकलंकआदि सभी ताकिकों ने प्रमाण लक्षण में 'व्यवसाय' पद को स्थान दिया है और प्रमाण को व्यवसायात्मक" माना है । यह कोई आकस्मिद. बात नहीं। न्यायसूत्र में प्रत्यक्ष को व्यवसायात्मक कहा है । सांख्यकारिका में भी प्रत्यक्ष को अध्यवसाय रूप कहा है । इसी प्रकार जैन आगमों में भी प्रमाण को व्यवसाय शब्द से व्यवहृत करने की प्रथा का स्पष्ट दर्शन निम्नसूत्र में होता है । प्रस्तुत में तीन प्रकार के व्यवसाय का जो विधान है वह सांख्यादिसंमत तीन प्रमाण मानने की परम्परामूलक हो तो आश्चर्य नहीं
___“तिविहे ववसाए पण्णत तं जहा-पच्चक्खे पच्चतिते प्राणुगामिए ।" स्थानांगसू० १८५।
प्रस्तुत सूत्र की व्याख्या करते हुए अभयदेव ने लिखा है कि__ "व्यवसायो निश्चयः स च प्रत्यक्षः-अवधिमनःपर्ययकेवलाख्यः, प्रत्ययात इन्द्रियानिन्द्रियलक्षणात् निमित्ताज्जातः प्रात्ययिकः, साध्यम् अग्न्यादिकम् अनुगच्छतिसाध्याभावे न भवति यो धूमादिहेतुः सोऽनुगामी ततो जातम् मानुगामिकम्-अनुमानम्तद्रूपो व्यवसाय प्रानुगामिक एवेति । अथवा प्रत्यक्षः स्वयंदर्शनलक्षणः, प्रात्ययिकःप्राप्तवचनप्रभवः, तृतीयस्तथैवेति" ।
स्पष्ट है कि प्रस्तुत सूत्र की व्याख्या में अभयदेव ने विकल्प किए हैं। अतएव उनको एक · अर्थ का निश्चय नहीं था । वस्तुतः प्रत्यक्ष शब्द से सांव्यवहारिक और पारमार्थिक दोनों प्रत्यक्ष, प्रत्ययित शब्द से अनुमान
और आनुगामिक शब्द से आगम, सूत्रकार को अभिप्रेत माने जाएँ तो सिद्धसेनसंमत तीन प्रमाणों का मूल उक्त सूत्र में मिल जाता है । सिद्धसेन
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५ देखो न्याया० टिप्पण पृ० १४८-१५१ । ६ चरक विमानस्थान अध्याय ४ । प्र० ८. सू० ८४ ।
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