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प्रमेय-खण्ड
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यह विचारणीय है । एक ही द्रव्य को नाना अवस्थाओं को या एक ही द्रव्य के देशकाल कृत नानारूपों को पर्याय कहा जाता है। जब कि द्रव्य के घटक अर्थात् अवयव ही प्रदेश कहे जाते हैं । भगवान् महावीर के मतानुसार कुछ द्रव्यों के प्रदेश नियत हैं और कुछ के अनियत । सभी देश और सभी काल में जीव के प्रदेश नियत हैं, कभी वे घटते भी नहीं और बढ़ते भी नहीं, उतने ही रहते हैं । यही बात धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय में भी लागू होती है। किन्तु पुद्गल स्कंध (अवयवी) के प्रदेशों का नियम नहीं। उनमें न्यूनाधिकता होती रहती है। प्रदेश-अंश और द्रव्य-अंशी का परस्पर तादात्म्य होने से एक ही वस्तू द्रव्य और प्रदेशविषयक भिन्न-भिन्न दृष्टि से देखी जा सकती है। इस प्रकार देखने पर विरोधी धर्मों का समन्वय एक ही वस्तु में घट जाता है ।
भगवान् महावीर ने अपने आप में द्रव्यदृष्टि, 'पर्यायदृष्टि, प्रदेश दृष्टि और गुणदृष्टि से नाना विरोधी धर्मों का समन्वय बतलाया है । और कहा है कि मैं एक हूँ द्रव्य दृष्टि से । दो हूँ ज्ञान और दर्शन रूप दो पर्यायों की अपेक्षा से । प्रदेश दृष्टि से तो मैं अक्षय हूँ, अव्यय हूँ, अवस्थित हूँ । जब कि उपयोग की दृष्टि से मैं अस्थिर हूँ, क्योंकि अनेक भूत, वर्तमान और भावी परिणामों की योग्यता रखता हूँ। इससे स्पष्ट है कि प्रस्तुत में उन्होंने पर्यायदृष्टि ने भिन्न एक प्रदेश दृष्टि को भी माना है। परन्तु प्रस्तुत स्थल में उन्होंने प्रदेश दृष्टि का उपयोग आत्मा के अक्षय, अव्यय
और अवस्थित धर्मों के प्रकाशन में किया है। क्योंकि पुद्गल-प्रदेश की तरह आत्म-प्रदेश व्ययशील, अनवस्थित और क्षयी नहीं । आत्मप्रदेशों में कभी न्यूनाधिकता नहीं होती। इसी दृष्टिविन्दु को सामने रखकर प्रदेश दृष्टि से आत्मा का अव्यय आदि रूप से उन्होंने वर्णन किया है।
प्रदेशार्थिक दृष्टि का एक दूसरा भी उपयोग है। द्रव्यदृष्टि से एक वस्तु में एकता ही होती है, किन्तु उसी वस्तु की अनेकता प्रदेशाथिक दृष्टि में बताई जा सकती है । क्योंकि प्रदेशों की संख्या अनेक होती है ।
१०० भगवती १८.१० ।
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