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१२८ आगम-युग का जन-दर्शन
इन्द्रियसापेक्ष ज्ञानों को असाक्षात्कारात्मक और परोक्ष माना गया है । जैनदृष्टि से प्रत्यक्ष ही वस्तु के स्वभाव और विभाव का साक्षात्कार कर सकता है, और वस्तु का विभाव से पृथक् जो स्वभाव है, उसका स्पष्ट पता लगा सकता है । इन्द्रियसापेक्ष ज्ञान में यह कभी संभव नहीं, कि वह किसी वस्तु का साक्षात्कार कर सके और किसी वस्तु के स्वभाव को विभाव से पृथक् कर उसको स्पष्ट जान सके, लेकिन इसका मतलब जैन मतानुसार यह कभी नहीं, कि इन्द्रियसापेक्ष ज्ञान भ्रम है । विज्ञानवादी बौद्धों ने तो परोक्ष ज्ञानों को अवस्तुग्राहक होने से भ्रम ही कहा है, किन्तु जैनाचार्यों ने वैसा नहीं माना। क्योंकि उनके मत में विभाव भी वस्तु का परिणाम है । अतएव वह भी वस्तु का एक रूप है । अतः उसका ग्राहकज्ञान भ्रम नहीं कहा जा सकता । वह अस्पष्ट हो सकता हैं, साक्षात्काररूप न भी हो, तब भी वस्तु - स्पर्शी तो है ही ।
भगवान् महावीर से लेकर उपाध्याय यशोविजय तक के साहित्य को देखने से यही पता लगता है, कि जैनों की ज्ञान चर्चा में उपर्युक्त मुख्य सिद्धान्त की कभी उपेक्षा नहीं की गई, बल्कि यों कहना चाहिए कि ज्ञान की जो कुछ चर्चा हुई है, वह उसी मध्यबिन्दु के आसपास ही हुई है । उपर्युक्त सिद्धान्त का प्रतिपादन प्राचीन काल के आगमों से लेकर अब तक के जैन- साहित्य में अविच्छिन्न रूप से होता चला आया है ।
आगम में ज्ञानचर्चा के विकास की भूमिकाएँ :
पञ्च ज्ञानचर्चा जैन परंपरा में भगवान् महावीर से भी पहले होती थी, इसका प्रमाण राजप्रश्नीय सूत्र में है । भगवान् महावीर ने केशीकुमार श्रमण का वृत्तान्त राजकेशीकुमार के मुख से निम्न वाक्य
अपने मुख से अतीत में होने वाले प्रश्नीय में कहा है । शास्त्रकार ने कहलवाया है
" एवं खु पएसी म्हं समणाणं निग्गंथाणं पंचविहे नाणे पण्णत्ते - तंजहा श्राभिणि बोहियनाणे सुयनाणे प्रोहिणाणे मणपज्जवणाणे केवलणाणे ( सू० १६५ )
इस वाक्य से स्पष्ट फलित यह होता है कि कम से कम उक्त
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