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भी वही है । अतएव 'द्रव्यसर्व' न कह करके 'आदेश सर्व' कहा | सर्व शब्द का तात्पर्यार्थ निरवशेष है । भावनिक्षेप तात्पर्यग्राही है । अतएव 'भाव सर्व' कहने के बजाय 'निरवशेष सर्व' कहा गया है ।
अनएव निक्षेपों ने भगवान् के मौलिक उपदेशों में स्थान पाया है, यह कहा जा सकता है ।
शब्द व्यवहार तो हम करते हैं, क्योंकि इसके बिना हमारा काम चलता नहीं । किन्तु कभी ऐसा हो जाता है कि इन्हीं शब्दों के ठीक अर्थ को - वक्ता के विवक्षित अर्थ को न समझने से बड़ा अनर्थ हो जाता है । इसी अनर्थ का निवारण निक्षेप-विद्या के द्वारा भगवान् महावीर ने किया है । निक्षेप का अर्थ है- अर्थनिरूपण पद्धति । भगवान् महावीर ने शब्दों के प्रयोगों को चार प्रकार के अर्थों में विभक्त कर दिया हैनाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । प्रत्येक शब्द का व्युत्पत्तिसिद्ध एक अर्थ होता है, किन्तु वक्ता सदा उसी व्युत्पत्तिसिद्ध अर्थ की विवक्षा करता ही है, यह बात व्यवहार में देखी नहीं जाती । इन्द्रशब्द का व्युत्पत्तिसिद्ध अर्थ कुछ भी हो, किन्तु यदि उस अर्थ की उपेक्षा करके जिस किसी वस्तु में संकेत किया जाए कि यह इन्द्र है तो वहाँ इन्द्र शब्द का प्रयोग किसी व्युत्पत्तिसिद्ध अर्थ के बोध के लिए नहीं किन्तु नाममात्र का निर्देश करने के लिए हुआ है । अतएव वहाँ इन्द्र शब्द का अर्थ नाम इन्द्र है । यह नाम निक्षेप है । इन्द्र की मूर्ति को जो इन्द्र कहा जाता है, वहाँ केवल नाम नहीं, किन्तु वह मूर्ति इन्द्र का प्रतिनिधित्व करती है ऐसा ही भाव वक्ता को विवक्षित है । अतएव वह स्थापना इन्द्र है । यह दूसरा स्थापना निक्षेप है । इन दोनों निक्षेपों में शब्द के व्युत्पत्तिसिद्ध
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भद्रबाहु, जिनभद्र और यतिवृषभ के उल्लेखों से यह भी प्रतीत होता है कि निक्षेपों में 'आदेश' यह एक द्रव्य से स्वतन्त्र निक्षेप भी था । यदि सूत्रकार को वही अभिप्रेत हो, तो प्रस्तुत सूत्र में द्रव्य निक्षेप उल्लिखित नहीं है, यह समझना चाहिए । जयधवला पृ० २८३ ।
१०३ "यद्वस्तुनोऽभिधानं स्थितमन्यार्थे तदर्थनिरपेक्षं । पर्यायानभिधेयं च नाम यादृच्छिक च तथा ||" अनु० टी० पृ० ११
१०७ "यत्त तदर्थवियुक्त तदभिप्रायेण यच्च तत्करणि । लेप्यादिकर्म तत् स्थापनेति क्रियतेत्पकालं च ||" अनु० टी० १२ ।
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