________________
११६
आगमन्युम का जैन- वर्शन
इन्हीं के आधार पर वस्तुदर्शन करता है । अभिप्राय यह है कि वस्तु का जो कुछ रूप हो, वह उन चार में से किसी एक में अवश्य समाविष्ट हो जाता है और द्रष्टा जिस किसी दृष्टि से वस्तुदर्शन करता है, उस की वह दृष्टि भी इन्हीं चारों में से किसी एक के अन्तर्गत हो जाती है ।
भगवान् महावीर ने कई प्रकार के विरोधों का, इन्हीं चार दृष्टियों और वस्तु के चार रूपों के आधार पर, परिहार किया है। जीव की और लोक की सांतता और अनन्तता के विरोध का परिहार इन्हीं चार दृष्टियों से जैसे किया गया है, उसका वर्णन पूर्व में हो चुका है । इसी प्रकार नित्यानित्यता के विरोध का परिहार भी उन्हीं से हो जाता है, वह भी उसी प्रसंग में स्पष्ट कर दिया गया है। लोक के, परमाणु के और पुद्गल के चार भेद इन्हीं दृष्टियों को लेकर भगवती में किए गए हैं । परमाणु की चरमता और अचरमता के विरोध का परिहार भी इन्हीं दृष्टियों के आधार पर किया गया है" ।
।
कभी कभी द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव इन चार दृष्टियों के स्थान में अधिक दृष्टियाँ भी बताई गई हैं किन्तु विशेषतः इन चार से ही काम लिया गया है । वस्तुतः चार से अधिक दृष्टियों को बताते समय भाव के अवान्तर भेदों को ही भाव से पृथक् करके स्वतन्त्र स्थान दिया है, ऐसा अधिक अपेक्षा भेदों को देखने से स्पष्ट होता है । अतएव मध्यममार्ग से उक्त चार ही दृष्टियाँ मानना न्यायोचित है ।
भगवान् महावीर ने धर्मास्तिकायआदि द्रव्यों को जब - द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और गुण दृष्टि से पांच प्रकार का बताया, " तब भावविशेष गुणदृष्टि को पृथक् स्थान दिया है, यह स्पष्ट है । क्योंकि गुण वस्तुतः भाव अर्थात् पर्याय ही है । इसी प्रकार भगवान् ने जब करण के पांच प्रकार द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव, भाव के भेद से बताए तब वहाँ भी प्रयोजनवशात्
૮૭ पु० ६२ से
८८ भगवती २.१.६० । ५.८.२२० । ११.१०.४२० । १४.४.५१३ । २०.४ । ८९ भगवतीसूत्र २.१० ।
९०
भगवतीसूत्र १६.६ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org