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प्रमेय-खण्ड
किन्तु परम तत्त्व को इन धर्मों का आधार मानने पर उन्हें जब विरोध की गंध आने लगी, तब फिर अन्त में उन्होंने दो मार्ग लिए । जिन धर्मों को दूसरे लोग स्वीकार करते थे, उनका निषेध कर देना यह प्रथम मार्ग है । यानि ऋग्वेद के ऋषि की तरह अनुभय पक्ष का अवलम्बन करके निषेध- मुख से उत्तर दे देना कि वह न सत् है न असत्- "न सन्नचासत्" ( श्वेता० ४.१८ ) । जब इसी निषेध को "स एष नेति नेति" ( वृहदा० ४.५.१५ ) की अंतिम मर्यादा तक पहुँचाया गया, तब इसी में से फलित हो गया कि वह अवक्तव्य है - यही दूसरा मार्ग है । "यतो वाचो निवर्तन्ते" ( तैत्तिरी० २.४.) ' यद्वाचानभ्युदितम् " ( केन० १.४ . ) "नैव वाचा न मनसा प्राप्तुं शक्योः " ( कठो० २.६.१२) श्रदृष्टमव्यवहार्यमग्राह्यमलक्षणमचिन्त्यमव्यपदेश्यमेकात्मप्रत्ययसारं प्रपञ्चोपशमं शान्तं शिवमद्वैतं चतुर्थं मन्यन्ते स आत्मा स विज्ञेयः । ' ( माण्डूक्दो० ७ )
आदि-आदि उपनिषट्टाक्यों में इसी अवक्तव्यभंग की चर्चा है ।
इतनी चर्चा से स्पष्ट हैं कि जब दो विरोधी धर्म उपस्थित होते हैं, तब उसके उत्तर में तीसरा पक्ष निम्न तीन तरह से हो सकता है । १. उभय विरोधी पक्षों को स्वीकार करने वाला (उभय ) । २. उभय पक्ष का निषेध करने वाला ( अनुभय ) ।
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३. अवक्तव्य ।
इन में से तीसरा प्रकार जैसा कि पहले बताया गया, दूसरे का विकसित रूप ही है । अतएव अनुभय और अवक्तव्य को एक ही भंग समझना चाहिए | अनुभय का तात्पर्य यह है, कि वस्तु उभयरूप से वाच्य नहीं अर्थात् वह् सत् रूप से व्याकरणीय नहीं और असद्रूप से भी व्याकरः णीय नहीं । अतएव अनुभय का दूसरा पर्याय अवक्तव्य हो जाता है । ।
इस अवक्तव्य में और वस्तु की सर्वथा अवक्तव्यता के पक्ष को व्यक्त करने वाले अवक्तव्य में जो सूक्ष्म भेद है, उसे ध्यान में रखना आवश्यक है । प्रथम को यदि सापेक्ष अवक्तव्य कहा जाए तो दूसरे को निरपेक्ष अवक्तव्य कहा जा सकता है । जब हम किसी वस्तु के दो या अधिक धर्मों को मन में रख कर तदर्थ शब्द की खोज करते हैं, तब प्रत्येक धर्म के
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