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प्रमेय-खण्ड
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इतनी चर्चा से यह स्पष्ट है कि अनुभय और सापेक्ष अवक्तव्यता का तात्पर्यार्थ एक मानने पर यही मानना पड़ता है कि जब विधि और निषेध दो विरोधी पक्षों की उपस्थिति होती है, तब उसके उत्तर में तीसरा पक्ष या तो उभय होगा या अवक्तव्य होगा । अतएव उपनिषदों के समय तक ये चार पक्ष स्थिर हो चुके थे, यह मानना उचित है--
१. सत् (विधि) २. असत् (निषेध) ३. सदसत् (उभय)
४. अवक्तव्य (अनुभय) इन्हीं चार पक्षों की परम्परा बौद्ध त्रिपिटक से भी सिद्ध होती है।
भगवान् बुद्ध ने जिन प्रश्नों के विषय में व्याकरण करना अनुचित समझा है, उन प्रश्नों को अव्याकृत कहा जाता है । वे अव्याकृत प्रश्न भी यही सिद्ध करते हैं, कि भगवान् बुद्ध के समय पर्यन्त एक ही विषय में चार विरोधी पक्ष उपस्थित करने की शैली दार्शनिकों में प्रचलित थी। इतना ही नहीं, बल्कि उन चारों पक्षों का रूप भी ठीक वैसा ही है, जैसा कि उपनिषदों में पाया जाता है। इस से यह सहज सिद्ध है कि उक्त चारों पक्षों का रूप तब तक में वैसा ही स्थिर हुआ था, जो कि निम्नलिखित अव्याकृत प्रश्नों को देखने से स्पष्ट होता है--
१. होति तथागतो परंमरणाति ? २. न होति तथागतो परंमरणाति ? ३. होति च न होति च तथागतो परंमरणाति ? ४. नेव होति न नहोति तथागतो परंमरणाति ?.१
इन अव्याकृत प्रश्नों के अतिरिक्त भी अन्य प्रश्न त्रिप्टिक में ऐसे हैं, जो उक्त चार पक्षों को ही सिद्ध करते हैं
१. सयंकत दुक्खंति ? २. परंकतं दुक्खंति ? ३. सयंकातं परंकतं च बुक्खंति ? । ४. असयंकारं अपरंकारं दुक्खंति ?
-संयत्सनि. XII. 17. ४९ संयुत्तनिकाय XL IV.
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