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प्रमेय सण
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स्याद्वाद को अपने-अपने ढंग से स्वीकार तो किया है, किन्तु उस का नाम लेने पर दोष बताने लग जाते हैं । स्याद्वाद के भंगों का प्राचीन रूप :
अब हम स्याद्वाद का स्वरूप जैसा आगम में है, उस की विवेचना करते हैं, भगवान् के स्याद्वाद को ठीक समझने के लिए भगवती सूत्र का एक सूत्र अच्छी तरह से मार्गदर्शक हो सकता है। अतएव उसी का सार नीचे दिया जाता है । क्योंकि स्याद्वाद के भंगों की संख्या के विषय में भगवान् का अभिप्राय क्या था, भगवान् के अभिप्रेत भंगों के साथ प्रचलित सप्तभंगी के भंगों का क्या सम्बन्ध है तथा आगमोत्तरकालीन जैन दार्शनिकों ने भंगों की सात ही संख्या का जो आग्रह रखा है, उस का क्या मूल है-यह सब उस सूत्र से मालूम हो जाता है ।
गौतम का प्रश्न है कि रत्नप्रभा पृथ्वी आत्मा है या अन्य है ? उसके उत्तर में भगवान् ने कहा
१. रत्नप्रभा पृथ्वी स्यादात्मा है । .. २. रत्नप्रभा पृथ्वी स्यादात्मा नहीं है ।
३. रत्नप्रभा पृथ्वी स्यादवक्तव्य है। अर्थात् आत्मा है और ____ आत्मा नहीं है, इस प्रकार से वह वक्तव्य नहीं है ।
इन तीन भंगों को सुन कर गौतम ने भगवान् से फिर पूछा कि आप एक ही पृथ्वी को इतने प्रकार से किस अपेक्षा से कहते हैं ? भगवान् ने उत्तर दिया
१. आत्मा-स्व के आदेश से आत्मा है । २. पर के आदेश से आत्मा नहीं है । ३. तदुभय के आदेश से अवक्तव्य है ।
रत्नप्रभा की तरह गौतम ने सभी पृथ्वी, सभी देव-लोक और सिद्ध-शिला के विषय में पूछा है और उत्तर भी वैसा ही मिला है।
८२ अनेकान्तव्यवस्था की अंतिम प्रशस्ति पृ० ८७.
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