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प्रमेय-खण्ड
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लक्षणमचिन्त्यमव्यपदेश्यम्" (माण्डू०७) ऐसे आत्मा को ही चतुर्थ पाद समझना चाहिए। कहना न होगा, कि प्रस्तुत में विधि, निषेध एवं उभय इन तीन भंगों से वाच्यता का निषेध करने वाला चतुर्थ अवक्तव्य भंग विवक्षित है ! इस स्थिति में स्याद्वाद के भंगों में अवक्तव्य को तीसरा नहीं, किन्तु चौथा स्थान मिलना चाहिए। इस परम्परा का अनुगमन सप्तभंगी में अवक्तव्य को चतुर्थ स्थान देने वाले आचार्य समन्तभद्र (आप्तमी० का० १६) और तदनुयायी जैनाचार्यों के द्वारा हुआ हो, तो आश्चर्य नहीं । आचार्य कुन्दकुन्द ने दोनों मतों का अनुगमन किया है ।
स्याद्वाद के भंगों की विशेषता :
स्याद्वाद के भंगों में भगवान् महावीर ने पूर्वोक्त चार भंगों के अतिरिक्त अम्य भंगों की भी योजना की है। इन के विषय में चर्चा करने के पहले उपनिषद् निर्दिष्ट चार पक्ष, त्रिपिटक के चार अव्याकृत प्रश्न, संजय के चार भंग और भगवान् महावीर के स्याद्वाद के भंग इन सभी में परस्पर क्या विशेषता है, उस की चर्चा कर लेना विशेष उपयुक्त है ।
उपनिषदों में माण्डूक्य को छोड़कर किसी एक ऋषि ने उक्त चारों पक्षों को स्वीकृत नहीं किया। किसी ने सत् पक्ष को किसी ने असत् पक्ष को, किसी ने उभय पक्ष को तो किसी ने अवक्तव्य पक्ष को स्वीकृत किया है, जब कि माण्डूक्य ने आत्मा के विषय में चारों पक्षों को स्वीकृत किया है।
भगवान् बुद्ध के चारों अव्याकृत प्रश्नों के विषय में तो स्पष्ट ही है कि भगवान् बुद्ध उन प्रश्नों का कोई हाँ या ना में उत्तर ही देना नहीं चाहते थे । अतएव वे प्रश्न अव्याकृत कहलाए । इसके विरुद्ध भगवान् महावीर ने चारों पक्षों का समन्वय कर के सभी पक्षों को अपेक्षा भेद से स्वीकार किया है। संजय के मत में और स्याद्वाद में भेद यह है कि स्याद्वादी प्रत्येक भंग का स्पष्ट रूप से निश्चयपूर्वक स्वीकार करता है, जब कि संजय मात्र भंग-जाल की रचना कर के उन भंगों के विषय में अपना अज्ञान ही प्रकट करता है। संजय का कोई निश्चय ही नहीं। वह भंग-जाल की रचना करके अज्ञानवाद में ही कर्तव्य की इतिश्री
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