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प्रागम-युग का जन-दर्शन
१. प्रथम के दो भंग रूप से वाच्यता का निषेध कर के । २. प्रथम के तीनों भंग रूप से वाच्यता का निषेध कर के।
प्रथम दो भंग रूप से वाच्यता का जब निषेध अभिप्रेत हो, तब स्वाभाविक रूप से अवक्तव्य का स्थान तीसरा पड़ता है। यह स्थिति ऋग्वेद के ऋषि के मन की जान पड़ती है, जब कि उन्होंने सत् और असत रूप से जगत् के आदि कारण को अवक्तव्य बताया। अतएव यदि स्याद्वाद के भंगों में अवक्तव्य का तीसरा स्थान जैन ग्रन्थों में आता हो, तो बह इतिहास की दृष्टि से संगत ही है । भगवती-सूत्र में जहाँ स्वयं भगवान् महावीर ने स्याद्वाद के भंगों का विवरण किया है, वहाँ अवक्तव्य भंग का स्थान तीसरा है। यद्यपि वहां उसका तीसरा स्थान अन्य दृष्टि से है, जिसका कि विवरण आगे किया जाएगा, तथापि भगवान् महावीर ने जो ऐसा किया वह, किसी प्राचीन परम्परा का ही अनुगमन हो तो आश्चर्य नहीं। इसी परम्परा का अनुगमन करके आचार्य उमास्वाति (लस्वार्थ भा० ५.३१),सिद्धसेन (सन्मति० १.३६), जिनभद्र (विशेषा गा० २२३२) आदि आचार्यों ने अवक्तव्य को तीसरा स्थान दिया है।
जब प्रथम के तीनों भंग रूप से वाच्यता का निषेध करके वस्तु को अवक्तव्य कहा जाता है, तब स्वभावतः अवक्तव्य को भंगों के क्रम में चौथा स्थान मिलना चाहिए। माण्डूक्योपनिषद् में चतुष्पाद आत्मा का वर्णन है। उसमें जो चतुर्थपादरूप आत्मा है, वह ऐसा ही अवक्तव्य है । ऋषि ने कहा है कि-"नान्तःप्रज्ञं न बहिष्प्रज्ञं नोभयतः प्रशं" (माण्डू ० ७) इस से स्पष्ट है कि--
१. अन्तःप्रज्ञ २. बहिष्प्रज्ञ ३. उभयप्रज्ञ
इन तीनों भंगों का निषेध कर के उस आत्मा के स्वरूप का प्रतिपादन किया गया है और फलित किया है कि "अदृष्टमव्यवहार्यमग्राह्यम
१ भगवती–१२.१०.४६६.
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