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श्रागम-युग का जैन दर्शन
वाचक भिन्न-भिन्न शब्द तो मिल जाते हैं, किन्तु उन शब्दों के क्रमिक प्रयोग से विवक्षित सभी धर्मों का बोध युगपत् नहीं हो पाता । अतएव वस्तु को हम अवक्तव्य कह देते हैं । यह हुई सापेक्ष अवक्तव्यता । दूसरे निरपेक्ष अवक्तव्य से यह प्रतिपादित किया जाता है कि वस्तु का पारमार्थिक रूप ही ऐसा है, जो शब्द का गोचर नहीं । अतएव उस का वर्णन शब्द से हो ही नहीं सकता ।
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स्याद्वाद के भंगों में जो अवक्तव्य भंग है, वह सापेक्ष अवक्तव्य है । और वक्तव्यत्व - अवक्तव्यत्व ऐसे दो विरोधी धर्मों को लेकर जैनाचार्यों ने स्वतन्त्र सप्तभंगी की जो योजना की है, वह निरपेक्ष अवक्तव्य को लक्षित कर के की है, ऐसा प्रतीत होता है । अतएव अवक्तव्य शब्द का प्रयोग संकुचित और विस्तृत ऐसे दो अर्थ में होता है, यह मानना चाहिए । विधि और निषेध उभय रूप से वस्तु की अवाच्यता जब अभिप्रेत हो, तब अवक्तव्य संकुचित या सापेक्ष अवक्तव्य है । और जब सभी प्रकारों का निषेध करना हो, तब विस्तृत और निरपेक्ष अवक्तव्य अभिप्रेत है ।
दार्शनिक इतिहास में उक्त सापेक्ष अवक्तव्यत्व नया नहीं है । ऋग्वेद के ऋषि ने जगत् के आदि कारण को सद्रूप से और असद्रूप से अवाच्य माना, क्योंकि उन के सामने दो ही पक्ष थे । जब कि माण्डूक्य ने चतुर्थपाद आत्मा को अन्तःप्रज्ञः (विधि), बहिष्प्रज्ञ (निषेध) और उभयप्रज्ञ (उभय ) इन तीनों रूप से अवाच्य माना, क्योंकि उनके सामने आत्मा के उक्त तीनों प्रकार थे। किन्तु माध्यमिक दर्शन के अग्रदूत नागार्जुनने वस्तु को चतुष्कोटिविनिर्मुक्त कह कर अवाच्य माना, क्योंकि उनके सामने विधि, निषेध, उभय और अनुभय ये चार पक्ष थे । इस प्रकार सापेक्ष अवक्तव्यता दार्शनिक इतिहास में प्रसिद्ध ही है । इसी प्रकार निरपेक्ष अवक्तव्यता भी उपनिषदों में प्रसिद्ध ही है । जब हम 'यतो वाचो निवर्तन्ते' जैसे वाक्य सुनते हैं तथा जैन आगम में जब 'सव्वे सरा नियट्टन्ति, जैसे वाक्य सुनते हैं, तब वहाँ निरपेक्ष अवक्तव्यता का ही प्रतिपादन हुआ है, यह स्पष्ट हो जाता है ।
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