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प्रमेय - खण्ड
जाए, तो उक्त गाथा में अस्याद्वादवचन के प्रयोग का ही निषेध मानना ठीक होगा क्योंकि यदि टीकाकार के अनुसार आशीर्वाद वचन के प्रयोग का निषेध माना जाए तो कथानकों में 'धर्मलाभ' रूप आशीर्वचन का प्रयोग जो मिलता है, वह असंगत सिद्ध होगा ।
आगमों में 'स्याद्वाद' शब्द के अस्तित्व के विषय में टीकाकार और प्रो० उपाध्ये में मतभेद हो सकता है, किन्तु 'स्यात्' शब्द के अस्तित्व में तो विवाद को कोई स्थान नहीं । भगवती सूत्र में जहाँ कहीं एक वस्तु में नाना धर्मों का समन्वय किया गया है, वहाँ सर्वत्र तो 'स्यात् ' शब्द का प्रयोग नहीं देखा जाता, किन्तु कई ऐसे भी स्थान हैं, जहाँ ' स्यात् ' शब्द का प्रयोग अवश्य किया गया है। उनमें से कई स्थानों का उद्धरण पूर्व में की गई अनेकान्तवाद तथा विभज्यवाद की चर्चा में वाचकों के लिए सुलभ है । उन स्थानों के अतिरिक्त भी भगवती में कई ऐसे स्थान हैं, जहाँ 'स्यात्' शब्द प्रयुक्त हुआ है । इसलिए 'स्यात्' शब्द के प्रयोग के कारण जैनागमों में स्याद्वाद का अस्तित्व सिद्ध ही मानना चाहिए । तो भी यह देखना आवश्यक है कि आगम-काल में स्याद्वाद का रूप क्या रहा है और स्याद्वाद के भंगों की भूमिका क्या है ?
भंगों का इतिहास :
अनेकान्तवाद की चर्चा के प्रसंग में यह स्पष्ट होगया है कि भगवान् महावीर ने परस्पर विरोधी धर्मों का स्वीकार एक ही धर्मी में किया और इस प्रकार उनकी समन्वय की भावना में से अनेकान्तवाद का जन्म हुआ है । किसी भी विषय में प्रथम अस्ति - विधिपक्ष होता है । तब कोई दूसरा उस पक्ष का नास्ति - निषेध पक्ष लेकर खण्डन करता है । अतएव समन्वेता के सामने जब तक दोनों विरोधी पक्षों की उपस्थिति न हो, तब तक समन्वयं का प्रश्न उठता ही नहीं । इस प्रकार अनेकान्तवाद या स्याद्वाद की जड़ में सर्वप्रथम - अस्ति और नास्ति पक्ष का होना आवश्यक है । अतएव स्याद्वाद के भंगों में सर्व प्रथम इन
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७८ भगवती १.७.६२, २.१.८६, ५.७.२१२, ६.४.२३८, ७.२.२७०, ७.२.२७३ ७.३.२७६, १२.१०.४६८, १२.१०.४६६, १४.४.५१२, १४.४.५१३. इत्यादि ।
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