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हं२
श्रागम-युग का जैन दर्शन
स्याद्वाद और सप्तभंगी :
विभज्यवाद और अनेकान्तवाद के विषय में इतना जान लेने के बाद ही स्याद्वाद की चर्चा उपयुक्त है । अनेकान्तवाद और विभज्यवाद में दो विरोधी धर्मों का स्वीकार समान भाव से हुआ है । इसी आधार पर विभज्यवाद और अनेकान्तवाद पर्याय शब्द मान लिए गए हैं । परन्तु दो विरोधी धर्मों का स्वीकार किसी न किसी अपेक्षा विशेष से ही हो सकता है - इस भाव को सूचित करने के लिए वाक्यों में 'स्यात्' शब्द के प्रयोग की प्रथा हुई । इसी कारण अनेकान्तवाद स्याद्वाद के नाम से भी प्रसिद्ध हुआ । अब ऐतिहासिक दृष्टि से देखना यह है कि आगमों में स्यात् शब्द का प्रयोग हुआ है कि नहीं अर्थात् स्याद्वाद का बीज आगमों में है या नहीं ।
प्रोफेसर उपाध्ये के मत से 'स्याद्वाद' ऐसा शब्द भी आगम में है । उन्होंने सूत्रकृतांग की एक गाथा में से उस शब्द को फलित किया है । परन्तु टीकाकार को उस गाथा में 'स्याद्वाद' शब्द की गंध तक नहीं आई है । प्रस्तुत गाथा इस प्रकार है*"
सूत्रकृ० १.१४.१६ ।
गाथा - गत 'न यासियावाय' इस अंश का टीकाकार ने 'न चाशीर्वाद' ऐसा संस्कृत प्रतिरूप किया है, किन्तु प्रो० उपाध्ये के मत से वह 'न चास्याद्वाद' होना चाहिए। उनका कहना है कि आचार्य हेमचन्द्र के नियमों के अनुसार 'आशिष' शब्द का प्राकृतरूप 'आसी' होना चाहिए । स्वयं हेमचन्द्र ने 'आसीया ७६ ऐसा एक दूसरा रूप भी दिया है । आचार्य हेमचन्द्र ने स्याद्वाद के लिए प्रकृतरूप 'सियावाओ' दिया है। प्रो० उपाध्ये का कहना है कि यदि इस सियावाओ' शब्द पर ध्यान दिया
जाज
७६
"नो छायए नो वि य लसएज्जा माणं न सेवेज्ज पगासणं च । न यावि पन्ने परिहास कुज्जा न यासियावाय वियागरेज्जा ।"
७७
ओरिएन्टल कोन्फरंस-नवम अधिवेशन की प्रोसिडींग्स पृ० ६७१.
प्राकृतव्या० ८.२.१७४.
वही ८.२.१०७.
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