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प्रागम-युग का. जैन-दर्शन ।
उन्हें परिणाम कहा जाता है। ऐसे परिणामों का जिक्र भगवती में तथा प्रज्ञापना के परिणामपद में किया गया है
परिणाम
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१. जीव-परिणाम
२. अजीव-परिणाम १. गतिपरिणाम ४
१. बंधनपरिणाम २ . २. इन्द्रियपरिणाम ५
२. गतिपरिणाम २ ३. कषायपरिणाम ४
३. संस्थानपरिणाम ५ ४. लेश्यापरिणाम ६
४. भेदपरिणाम ५ ५. योगपरिणाम ३
५. वर्णपरिणाम ५ ६. उपयोगपरिणाम २
६. गंधपरिणाम ३ ७. ज्ञानपरिणाम ५+३ ७. रसपरिणाम ५ ८. दर्शनपरिणाम ३
८. स्पर्शपरिणाम ८ ६. चारित्रपरिणाम ५
६. अगुरुलघुपरिणाम १ १०. वेदपरिणाम ३
१०. शब्दपरिणाम २ जीव और अजीव के उपर्युक्त परिणामों के प्रकार एक जीव में या एक अजीव में क्रमश: या अक्रमशः यथायोग्य होते हैं। जैसे किसी एक विवक्षित जीव में मनुष्य गति पंचेन्द्रियत्व अनन्तानुबन्धी कषाय कृष्णलेश्या काययोग, साकारोपयोगमत्यज्ञान, मिथ्यादर्शन, अविरति और नपंसकवेद ये सभी परिणाम युगपत् हैं। किन्तु कुछ परिणाम क्रमभावी हैं। जब जीव मनुष्य होता है, तव नारक नहीं। किन्तु बाद में कर्मानुसार वही जीव मरकर नारक परिणामरूप गति को प्राप्त करता है। इसी प्रकार वह कभी देव या तिर्यंच भी होता है । कभी एकेन्द्रिय और कभी द्वीन्द्रिय । इस प्रकार ये परिणाम एक जीव में क्रमश: ही हैं।
वस्तुतः परिणाम मात्र क्रमभावी ही होते हैं । ऐसा संभव है कि अनेक परिणामों का काल एक हो, किन्तु कोई भी परिणाम द्रव्य में
७० भगवती १४.४. प्रज्ञापना-पद १३.
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