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८४ श्रागम-युग का जैन दर्शन
किन्तु आत्मा तो कूटस्थ ही माना गया है। इसके विपरीत भगवान् महावीर ने आत्मा और जड़ दोनों में परिणमन-शीलता का स्वीकार करके परिणामवाद को सर्वव्यापी करार दिया है ।
द्रव्य पर्याय का भेदाभेद :
द्रव्य और पर्याय का भेद है या अभेद - इस प्रश्न को लेकर भगवान् महावीर के जो विचार हैं उनकी विवेचना करना यहाँ पर अब प्राप्त है
भगवती सूत्र में पार्श्व - शिष्यों और महावीर - शिष्यों में हुए एक विवाद का जिक्र है । पार्श्वशिष्यों का कहना था कि अपने प्रतिपक्षी सामायिक और उसका अर्थ नहीं जानते । तब प्रतिपक्षी श्रमणों ने उन्हें समझाया कि
"आया णे अज्जो, सामाइए, आया में अज्जो, सामाइयन्स अट्ठे ।"
भगवती १.६.७७ अर्थात् आत्मा ही सामायिक है और आत्मा ही सामायिक का अर्थ है ।
आत्मा द्रव्य है और सामायिक उसका पर्याय । उक्त वाक्य से यह फलित होता है कि भगवान् महावीर ने द्रव्य और पर्याय के अभेद का समर्थन किया था, किन्तु उनका अभेद समर्थन आपेक्षिक है । अर्थात् द्रव्य-दृष्टि की प्रधानता से द्रव्य और पर्याय में अभेद है, यह उनका मत होना चाहिए, क्यों कि अन्यत्र उन्होंने पर्याय और द्रव्य के भेद का भी समर्थन किया है । और स्पष्ट किया है कि अस्थिर पर्याय के नाश होने पर भी द्रव्य स्थिर रहता है" । यदि द्रव्य और पर्याय का ऐकान्तिक अभेद इष्ट होता तो वे पर्याय के नाश के साथ तदभिन्न द्रव्य का भी नाश प्रतिपादित करते । अतएव इस दूसरे प्रसंग में पर्याय दृष्टि की प्रधानता से द्रव्य और पर्याय के भेद का समर्थन और प्रथम प्रसंग में द्रव्य-दृष्टि
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"से नृणं भंते प्रथिरे पलोट्टह नो थिरे पलोट्टइ अथिरे भज्जइ, नो थिरे भज्जइ, ए बाले बालियां प्रसासयं, सासए पंडिए पंडियत्तं प्रसासयं ? हंता गोयमा ! श्रथिरे लोट्टई जाव पंडियत्तं प्रसासयं । " भगवती - १.६.८०.
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