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आगम-साहित्य की रूप-रेखा
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अधिकार पाकर उससे बरी नहीं हो सकता। उसके लिए जीवन की प्रथमावस्था में नियमतः वेदाध्ययन आवश्यक था । अन्यथा ब्राह्मण समाज में उसका कोई स्थान नहीं रहता था। इसके विपरीत जैन श्रमण को जैनश्रुत का अधिकार मिल जाता है, कई कारणों से वह उस अधिकार के उपभोग में असमर्थ ही रहता है । ब्राह्मण के लिए वेदाध्ययन सर्वस्व था, किन्तु जैन श्रमण के लिए आचार-सदाचार ही सर्वस्व है। अतएव कोई मन्दबुद्धि शिष्य सम्पूर्ण श्रुत का पाठ न भी कर सके, तब भी उसके मोक्ष में किसी प्रकार की रुकावट नहीं थी और ऐहिक जीवन भी निर्बाध रूप से सदाचार के बल से व्यतीत हो सकता था, जैन सूत्रों का दैनिक क्रियाओं में विशेष उपयोग भी नहीं । एक सामायिक पद मात्र से भी मोक्षमार्ग सुगम हो जाने की जहाँ बात हो, वहाँ विरले ही सम्पूर्ण श्रुतधर होने का प्रयत्न करें। अधिकांश वैदिक सूक्तों का उपयोग अनेक प्रकार के क्रियाकाण्डों में होता है जबकि कुछ ही जैनसूत्रों का उपयोग श्रमण के लिए अपने दैनिक जीवन में है । अतः शुद्ध ज्ञान-विज्ञान का रस हो, तभी जैनागम-समुद्र में मग्न होने की भावना जागृत होती है,क्योंकि यहाँ तो आगम का अधिकांश भाग बिना जाने भी श्रमण जीवन का रस मिल सकता है । अपनी स्मृति पर बोझ न बढ़ा कर, पुस्तकों में जैनागमों को लिपिबद्ध करके भी जैन श्रमण आगमों को बचा सकते थे, किन्तु वैसा करने में अपरिग्रहवत का भंग असह्य था। उसमें उन्होंने असंयम देखा। जब उन्होंने अपने अपरिग्रहव्रत को कुछ शिथिल किया, तब तक वे आगमों का अधिकांश भूल चुके थे। पहिले जिस पुस्तक-परिग्रह को असंयम का कारण समझा था, उसी को संयम का कारण मानने लगे । क्योंकि वैसा न करते तो श्रुत-विनाश का भय था। किन्तु अब क्या हो सकता था। जो कुछ उन्होंने खोया, वह तो मिल ही नहीं सकता था। लाभ इतना अवश्य हुआ, कि जब से उन्होंने पुस्तक-परिग्रह को संयम का कारण माना, तो जो कुछ आगमिकसंपत्ति उस समय शेष रह गई थी,
५० पोत्थएसु घेप्यंतएतु असंजमो भवइ. दशव० चू० पृ० २१.. १८ कालं पुण पडुच्च चरणकरणट्ठा प्रवोच्छितिनिमित्तं च गेल्हमाणस्स पोत्थए
संजमो भवइ, वशव० चू० पृ० २१.
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