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आगम-युग का जैन दर्शन
स्थिर की है । जगदुत्पत्ति के विषय में नानावादों का निराकरण करके विश्वको किसी ईश्वर या अन्य किसी व्यक्तिने नहीं बनाया, वह तो अनादि-अनन्त है, इस सिद्धान्त की स्थापना की गई है । तत्कालीन क्रियावाद, अक्रियावाद, विनयवाद और अज्ञानवाद का निराकरण करके विशुद्ध क्रियावाद की स्थापना की गई है ।
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प्रज्ञापनामें जीवके विविध भावोंको लेकर विस्तारसे विचार किया गया है । राजप्रश्नीय में पार्श्वनाथकी परम्परामें होने वाले केशीश्रमण ने श्रावस्तीके राजा पएसीके प्रश्नोंके उत्तर में नास्तिकवाद का निराकरण करके आत्मा और तत्सम्बन्धी अनेक तथ्यों को दृष्टान्त और युक्तिपूर्वक समझाया है ।
भगवती सूत्र के अनेक प्रश्नोत्तरों में नय, प्रमाण आदि अनेक दार्शनिक विचार बिखरे पड़े हैं ।
नन्दीसूत्र जैन दृष्टि से ज्ञानके स्वरूप और भेदोंका विश्लेषण करनेवाली एक सुन्दर एवं सरल कृति है ।
स्थानांग और समवायांग की रचना बौद्धोंके अंगुत्तरनिकाय के ढंग की है । इन दोनोंमें भी आत्मा, पुद्गल, ज्ञान, नय और प्रमाण आदि विषयों की चर्चा की गई है । भगवान् महावीर के शासन में होने वाले निह्नवों का उल्लेख स्थानांग में है । इस प्रकार के सात व्यक्ति बताए गए हैं, जिन्होंने कालक्रमसे भगवान् महावीरके सिद्धांतोंकी भिन्न-भिन्न बातको लेकर अपना मतभेद प्रकट किया था । वे ही निह्नव कहे गए हैं ।
अनुयोग में शब्दार्थ करनेकी प्रक्रियाका वर्णन मुख्य है, किन्तु प्रसङ्गसे उसमें प्रमाण और नय का तथा तत्त्वों का निरूपण भी अच्छे ढंग से हुआ है ।
आगमों की टीकाए :
इन आगमोंकी टीकाएँ प्राकृत और संस्कृत में हुई हैं । प्राकृत टीकाएँ निर्युक्ति, भाष्य और चूर्णिके नामसे लिखी गई हैं। निर्युक्ति
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