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प्रमेय-खण्ड
है । अतएव पूर्व अव उत्तर रूप में अस्तित्व में है। उत्तर पूर्व से सर्वथा भिन्न भी नहीं, अभिन्न भी नहीं । किन्तु अव्याकृत है । क्यों कि भिन्न कहने पर उच्छेदवाद होता है और अभिन्न कहने पर शाश्वतवाद होता है। भगवान् बुद्ध को ये दोनों वाद मान्य न थे. अतएव ऐसे प्रश्नों का उन्होंने अव्याकृत' कह कर उत्तर दिया है।
इस संसार-चक्र को काटने का उपाय यही है कि पूर्व का निरोध करना । कारण के निरुद्ध हो जाने से कार्य उत्पन्न नहीं होगा। अर्थात् अविद्या के निरोध से तृष्णा के निरोध से उपादान का निरोध, उपादान के निरोध से भव का निरोध, भव के निरोध से जन्म का निरोध, जन्म के निरोध से मरण का निरोध हो जाता है ।
किन्तु यहाँ एक प्रश्न होता है कि मरणानन्तर तथागत बुद्ध का क्या होता है ? इस प्रश्न का उत्तर भी अव्याकृत है। वह इसलिए कि यदि यह कहा जाए कि मरणोत्तर तथागत होता है, तो शाश्वतवाद का और यदि यह कहा जाए कि नहीं होता, तो उच्छेदवाद का प्रसंग आता है। अतएव इन दोनों वादों का निषेध करने के लिए भगवान् बुद्ध ने तथागत को मरणोत्तरदशा में अव्याकृत कहा है। जैसे गंगा की बालू का नाम नहीं, जैसे समुद्र के पानी का नाप नहीं, इसी प्रकार मरणोत्तर तथागत भी गंभीर है, अतएव अव्याकृत है । जिस रूप, वेदना, संज्ञा, आदि के कारण तथागत को प्रज्ञापना होती थी, वह रूपांदि तो प्रहीण हो गए । अब तथागत की प्रज्ञापना का कोई साधन नहीं बचता, इसलिए वे अव्याकृत हैं३२ ।
इस प्रकार जैसे उपनिषदों में आत्मवाद की पराकाष्ठा के समय । आत्मा या ब्रह्म को 'नेति-नेति' के द्वारा अवक्तव्य प्रतिपादित किया गया है, उसे सभी विशेषणों से पर बताया जाता है 33 ठीक उसी प्रकार
31 संयुक्तनिकाय XLIV 1, 7 and 8. ३२ संयुत्तनिकाय XLIV.
33 'अदृष्टमव्यवहार्यमग्राह्यमलक्षणमचिन्त्यमव्यपदेश्यमेकात्मप्रत्ययसारं प्रपञ्चोपशमं शान्तं शिवमतं चतुथं मन्यन्ते स आत्मा स विज्ञेयः।"-माण्ड• ६.७. "स एष नेति नेति इत्यात्माऽगृह्यो न हि गृह्यते।"-बृहवा० ४.५.१५. इम्यादि Constru. p. 219.
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