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५० आगम-युग का जैन दर्शन
तथागत बुद्ध ने भी आत्मा के विषय में उपनिषदों से बिल्कुल उलटी राह लेकर भी उसे अव्याकृत माना है । जैसे उपनिषदों में परम तत्त्व को अवक्तव्य मानते हुए भी अनेक प्रकार से आत्मा का वर्णन हुआ है और वह व्यावहारिक माना गया है, उसी प्रकार भगवान् बुद्ध ने भी कहा है, कि लोक-संज्ञा, लोक निरुक्ति, लोक व्यवहार, लोक-प्रज्ञप्ति का आश्रय करके कहा जा सकता है कि "मैं पहले था, 'नहीं था' ऐसा नहीं, मैं भविष्य में होऊँगा, 'नहीं होऊँगा' ऐसा नहीं, मैं अब हूँ, 'नहीं हूँ' ऐसा नहीं ।" तथागत ऐसी भाषा का व्यवहार करते हैं, किन्तु इसमें फँसते नहीं ॐ ।
जैन तत्त्वविचार की प्राचीनता :
इतनी वैदिक और बौद्ध दार्शनिक पूर्वभूमिका के आधार पर जैनदर्शन की आगम-वर्णित भूमिका के विषय में विचार किया जाए तो जो उचित ही होगा | जैन आगमों में जो तत्त्व विचार है, वह तत्कालीन दार्शनिक विचार की भूमिका से सर्वथा अछूता रहा होगा, इस बात को अस्वीकार करते हुए भी जैन अनुश्रुति के आधार पर इतना तो कहा जा सकता है कि जैन आगम - वर्णित तत्त्व-विचार का मूल भगवान् महावीर के समय से भी पुराना है । जैन अनुश्रुति के अनुसार भगवान् महावीर ने किसी नये तत्त्व-दर्शन का प्रचार नहीं किया है, किन्तु उनसे २५० वर्ष पहले होने वाले तीर्थंकर पार्श्वनाथ के तत्त्वविचार का ही प्रचार किया है । पार्श्वनाथ-सम्मत आचार में तो भगवान् महावीर ने कुछ परिवर्तन किया है जिसकी साक्षी स्वयं आगम दे रहे हैं, किन्तु पार्श्वनाथ के तत्त्वज्ञान से उनका कोई मतभेद जैन अनुश्रुति में बताया गया नहीं है । इससे हम इस नतीजे पर पहुँच सकते हैं कि जैन तत्त्व - विचार के मूल तत्त्व पार्श्वनाथ जितने तो पुराने अवश्य हैं ।
जैन अनुश्रुति तो इससे भी आगे जाती है । उसके अनुसार अपने से पहले हुए श्रीकृष्ण के समकालीन तीर्थंकर अरिष्टनेमि की परंपरा को
ॐ दीघनिकाय- पोट्ठपावसुत ६.
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