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आगम-युग का जैन-दर्शन
गरिसर
होता । इसमें आपकी क्या संमति है ? इस प्रश्न का एकांशी हाँ में या नहीं में, उत्तर न देकर भगवान् बुद्ध ने कहा, कि गृहस्थ भी यदि मिथ्यात्वी है, तो निर्वाण मार्ग का आराधक नहीं और त्यागी भी यदि मिथ्यात्वी है, तो वह भी आराधक नहीं । किन्तु यदि वे दोनों सम्यक् प्रतिपत्ति सम्पन्न हैं, तभी आराधक होते हैं । अपने ऐसे उत्तर के बल पर वे अपने आपको विभज्यवादी बताते हैं और कहते हैं कि मैं एकांशवादी नहीं हूँ।
यदि वे ऐसा कहते, कि गृहस्थ आराधक नहीं होता, त्यागी आराधक होता है, या ऐसा कहते कि त्यागी आराधक होता है, गृहस्थ आराधक नहीं होता, तब उनका वह उत्तर एकांशवाद होता। किन्तु प्रस्तूत में उन्होंने त्यागी या गृहस्थ की आराधकता और अनाराधकता में जो अपेक्षा या कारण था, उसे बताकर दोनों को आराधक और अनाराधक बताया है। अर्थात् प्रश्न का उत्तर विभाग करके दिया है । अतएव वे अपने आपको विभज्यवादी कहते हैं।
यहाँ पर यह ध्यान रखना चाहिए कि भगवान् बुद्ध सर्वदा सभी प्रश्नों के उत्तर में विभज्यवादी नहीं थे। किन्तु जिन प्रश्नों का उत्तर विभज्यवाद से ही संभव था, उन कुछ ही प्रश्नों का उत्तर देते समय ही वे विभज्यवाद का अवलम्बन लेते थे।
उपर्युक्त बौद्ध सूत्र से एकांशवाद और विभज्यवाद का परस्पर विरोध स्पष्ट सूचित हो जाता है । जैन टीकाकार विभज्यवाद का अर्थ स्याद्वाद अर्थात् अनेकान्तवाद करते हैं । एकान्तवाद और अनेकान्तवाद का भी परस्पर विरोध स्पष्ट ही है। ऐसी स्थिति में सूत्रकृतांग गत विभज्यवाद का अर्थ अनेकान्तवाद, नयवाद, अपेक्षावाद या पृथक्करण करके, विभाजन करके किसी तत्त्व के विवेचन का वाद भी लिया जाए तो ठीक ही होगा। अपेक्षाभेद से स्यानशब्दांकित प्रयोग आगम में देखे जाते हैं। एकाधिक भंगों का स्याद्वाद भी आगम में मिलता है।
___3८ देखो-दीघनिकाय-३३ संगितिपरियाय सुत्तमें चार प्रश्नव्याकरण ।
३९ वही।
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