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"गोयमा, जीवा सिय सासया सिय असासया । गोयमा, दव्वट्ठयाए सासया भावट्ट्याए असासया ।" - भगवती ७.२.२७३. ।
प्रमेय-खण्ड ७१
स्पष्ट है कि द्रव्यार्थिक अर्थात् द्रव्य की अपेक्षा से जीव नित्य है और भाव अर्थात् पर्याय की दृष्टि से जीव अनित्य है, यह मन्तव्य भगवान् महावीर का है । इसमें शाश्वतवाद और उच्छेदवाद दोनों के समन्वय का प्रयत्न है । चेतन-जीव द्रव्य का विच्छेद कभी नहीं होता इस दृष्टि से जीव को नित्य मान करके शाश्वतवाद को प्रश्रय दिया है और जीव की नाना अवस्थाएँ जो स्पष्ट रूप से विच्छिन्न होती हुई देखी जाती हैं, उनकी अपेक्षा से उच्छेदवाद को भी प्रश्रय दिया । उन्होंने इस बात को स्पष्ट रूप से स्वीकार किया है कि ये अवस्थाएँ अस्थिर हैं इसीलिए उनका परिवर्तन होता है, किन्तु चेतन द्रव्य शाश्वत स्थिर हैं । जीवगत वालत्व - पाण्डित्यादि अस्थिर धर्मों का परिवर्तन होगा, जब कि जीवद्रव्य तो — शाश्वत ही रहेगा ।
से नूणं भंते अथिरे पलोट्टइ, नो थिरे पलोट्टई, अथिरे भज्जइ नो थिरे भज्जइ, सासए बालए बालियत्तं असासयं, सासए पंडिए पंडियतं असासयं ?" "हंता गोयमा, अथिरे पलोट्टई जाव पंडियत्तं असासयं ।"
भगवती - १.६.५० ॥ द्रव्यार्थिक नय का दूसरा नाम अव्युच्छित्ति नय है और भावाकिनय का दूसरा नाम व्युच्छित्तिनय है । इससे भी यही फलित होता है है कि द्रव्य अविच्छिन्न ध्रुव शाश्वत होता है और पर्याय का विच्छेदनाश होता है अतएव वह अध्रुव अनित्य प्रशाश्वत है । जीव और उसके पर्याय का अर्थात् द्रव्य और पर्याय का परस्पर अभेद और भेद भी इष्ट है । इसीलिए जीव द्रव्य को जैसे शाश्वत और अशाश्वत बताया, इसी प्रकार जीव के नारक, वैमानिक आदि विभिन्न पर्यायों को भी शाश्वत और अशास्वत बताया है। जैसे जीव को द्रव्य की अपेक्षा से अर्थात् जीव द्रव्य की अपेक्षा से नित्य कहा है वैसे ही नारक को भी जीव द्रव्य की अपेक्षा से नित्य कहा है । और जैसे जीव द्रव्य को नारकादि पर्याय की अपेक्षा से अनित्य कहा है वैसे ही नारक जीव को भी नारकत्वरूप पर्याय की अपेक्षा से अनित्य कहा है
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