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आगम-युग का जैन-दर्शन
"नेरइया णं भंते किं सासया असासया ?" "गोयमा, सिय सासया सिय असासया।" "से केणढेणं भंते एवं बुच्चइ ?"
"गोयमा, अश्वोच्छित्तिणयठ्याए सासया, वोच्छित्तिणयठ्ठयाए असासया।......"एवं जाव वेमाणिया।" भगवती ७.३.२७६ ।
जमाली के साथ हुए प्रश्नोत्तरों में भगवान् ने जीव की शाश्वतता के मन्तव्य का जो स्पष्टीकरण किया है, उस से नित्यता से उनका क्या मतलब है व अनित्यता से क्या मतलब है-यह बिलकुल स्पष्ट हो जाता है
____ "सासए जीवे जमाली, जंन कयाइ णासी, जो कयावि न भवति, कयावि ण भविस्सइ, भुवि च भवइ य भविस्सइ य, धुवे णितिए सासए अक्खए अव्वए अवट्ठिए णिच्चे । असासए जीवे जमाली, जन्नं नेरइए भवित्ता तिरिक्खजोणिए भवइ तिरिक्खजोणिए भवित्ता मणुस्से भवइ मणुस्से भविता देवे भवइ ।" ।
भगवती ६.६.३८७ । १.४.४२ । तीनों काल में ऐसा कोई समय नहीं जब कि जीव न हो । इसीलिए जीव शाश्वत, ध्रुव एवं नित्य कहा जाता है । किन्तु जीव नारक मिट कर तिर्यंच होता है और तिर्यंच मिट कर मनुष्य होता है--इस प्रकार जीव क्रमशः नाना अवस्थाओं को प्राप्त करता है। अतएव उन अवस्थाओं की अपेक्षा से जीव अनित्य अशाश्वत अध्रुव है । अर्थात् अवस्थाओं के नाना होते रहने पर भी जीवत्व कभी लुप्त नहीं होता, पर जीव की अवस्थाएँ लुप्त होती रहती हैं । इसीलिए जीव शाश्वत और अशाश्वत है।
इस व्याकरण में औपनिषद ऋषिसम्मत आत्मा की नित्यता और भौतिकवादिसम्मत आत्मा की अनित्यता के समन्वय का सफल प्रयत्न है । अर्थात् भगवान् बुद्ध के अशाश्वतानुच्छेदवाद के स्थान में शाश्वतोच्छेदवाद की स्पष्टरूप से प्रतिष्ठा की गई है। जीव की सान्तता-अनन्तता :
जैसे लोक की सान्तता और निरन्तता के प्रश्न को भगवान् बुद्ध ने अव्याकृत बताया है, वैसे जीव की सान्तता और निरन्तता के प्रश्न के
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