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प्रमेय-खण्ड ६५
जब शरीर को आत्मा से पृथक् माना जाता है, तब वह रूपी और अचेतन हैं । और जब शरीर को आत्मा से अभिन्न माना जाता है, तब शरीर अरूपी और सचेतन है ।
भगवान् बुद्ध के मत से यदि शरीर को आत्मा से भिन्न माना जाए तब ब्रह्मचर्यवास संभव नहीं । और यदि अभिन्न माना जाए तब भी-ब्रह्मचर्यवास संभव नहीं । अतएव इन दोनों अन्तों को छोड़कर भगवान् ने मध्यममार्ग का उपदेश दिया और शरीर के भेदाभेद के प्रश्न को अव्याकृत
बताया
"तं जीवं तं सरीरं ति भिक्खु, दिट्टिया सति ब्रह्मचरियवासो न होति । अञ्ज जीवं अजं सरीरं ति वा भिक्खु, विट्ठिया सति ब्रह्मचरियवासी न होति । एते ते भिक्खु, उभो अन्ते अनुपगम्म मज्भेन तथागतो धम्मं देसेति – ” संयुक्त XII 135 किन्तु भगवान् महावीर ने इस विषय में मध्यममार्ग - अनेकान्तवाद का आश्रय लेकर उपर्युक्त दोनों विरोधी वादों का समन्वय किया । यदि आत्मा शरीर से अत्यन्त भिन्न माना जाए तब कायकृत कर्मों का फल उसे नहीं मिलना चाहिए । अत्यन्तभेद मानने पर इस प्रकार अकृतागम दोष की आपत्ति है । और यदि अत्यन्तं अभिन्न माना जाए तब शरीर का दाह हो जाने पर आत्मा भी नष्ट होगा, जिस से परलोक संभव नहीं रहेगा । इस प्रकार कृत प्रणाश दोष की आपत्ति होगी । अतएव इन्हीं दोनों दोषों को देखकर भगवान् बुद्ध ने कह दिया कि भेद पक्ष और अभेद - पक्ष ये दोनों ठीक नहीं हैं। जब कि भगवान् महावीर ने दोनों विरोधी वादों का समन्वय किया, और भेद और अभेद दोनों पक्षों को स्वीकार किया । एकान्त भेद और अभेद मानने पर जो दोष होते हैं, वे उभयवाद मानने पर नहीं होते । जीव और शरीर का भेद इसलिए मानना चाहिए कि शरीर का नाश हो जाने पर भी आत्मा दूसरे जन्म में मौजूद रहती है, या सिद्धावस्था में अशरीरीआत्मा भी होती है । अभेद इसलिए मानना चाहिए कि संसारावस्था में शरीर और आत्मा का क्षीर- नीरवत् या अग्निलोह - पिण्डवत् तादात्म्य होता है इसीलिए काय से किसी वस्तु का स्पर्श होने पर आत्मा में संवेदन होता है और कायिक कर्म का विपाक आत्मा में होता है ।
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